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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 296 यथैव ह्यक्षव्यापाराभावे मानसप्रत्यक्षस्य निश्चयात्मकस्योत्पत्तौ जात्यंधादीनामपि तदुत्पत्तिप्रसंगादधबधिरतादिविरोधस्तथा मनोव्यापारापायेप्यक्षज्ञानस्योत्पत्तिर्विगुणमनस्कस्यापि तदुत्पत्तिप्रसंगात् मनस्कारापेक्षत्वविरोध इत्यक्षमनोपेक्षमक्षज्ञानमक्षमनोपेक्षत्वादेव च निश्चयात्मकमस्तु किमन्येन मानसप्रत्यक्षेण // ननु यद्येकमेवेदमिंद्रियानिंद्रियनिमित्तरूपादिज्ञानं तदा कथं क्रमतोवग्रहेहास्वभावौ परस्परं भिन्नौ स्यातां नोचेत्कथमेकं तद्विरोधादित्यत्रोच्यते का निश्चय करना स्वरूप ऐसा रूप, रस, सुख आदि को विषय करने वाला एकज्ञान मान लेना युक्त है। अर्थात् इन्द्रिय, अनिन्द्रियों से उत्पन्न और स्वार्थों का निश्चय कराने वाले तथा रूप आदि को विषय करने वाले एक मतिज्ञान को मानना चाहिए // 58-59 // जैसे इन्द्रिय व्यापार के नहीं होने पर निश्चयात्मक मानस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति मानने में जन्मांध, जन्मबधिर, आदि जीवों को भी रूप, शब्द, सुख आदि के ज्ञानजन्य उन मानस प्रत्यक्षों की उत्पत्ति हो जाने का प्रसंग आएगा और ऐसा होने पर अन्धपना, बहिरापना, पागलपन आदि व्यवहार का विरोध आता है। उसी प्रकार मन के व्यापार बिना भी यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान की उत्पत्ति मानी जाएगी तो अमनस्क या अन्यगतमनस्क अथवा विभ्रान्तमनस्क जीव के भी उस इन्द्रियज्ञान की उत्पत्ति हो जाने का प्रसंग होगा, और ऐसा होने पर जगत् में प्रसिद्ध मन की ज्ञान सुखादिक में तत्परता की अपेक्षा रखने का विरोध होगा / इसलिए मतिज्ञान अक्ष और मन की अपेक्षा रखने वाला है-इन्द्रियज्ञान होने से लोकप्रसिद्ध अक्ष और मन की अपेक्षा रखने वाले ज्ञान के समान तथा इसी कारण वह एक मतिज्ञान निश्चयात्मक है। इस प्रकार सिद्ध हो जाने पर फिर अन्य निर्विकल्पक मानस प्रत्यक्ष के मानने से क्या लाभ है? अतः इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य ज्ञानों से उत्पन्न हुआ ईहाज्ञान मानना चाहिए। शंका : जैन सिद्धान्त में यह इन्द्रिय और अनिन्द्रियरूप निमित्तों से उत्पन्न हुआ रूप, सुख आदि का ज्ञान यदि एक ही माना गया है, तब तो क्रम से होने वाले अवग्रह और ईहास्वरूप ज्ञान परस्पर में भिन्न कैसे हो सकेंगे? इस प्रकार वे अवग्रह, ईहा भिन्न नहीं होकर अभिन्न हो जाएंगे और यदि जैन उनको अभिन्न न मानेंगे यानी स्वसिद्धान्त अनुसार भिन्न-भिन्न मानते रहेंगे तो फिर उन ज्ञानों को एक मतिज्ञान कैसे कह सकेंगे? क्योंकि भेद और एकत्व का विरोध है। इस प्रकार की शंका का आचार्य समाधान करते हैं जीव के ज्ञानावरण के क्षयोपशमविशेष के क्रम को हेतु मानकर उत्पन्न हुए तथा द्रव्य और पर्याय को विषय करने वाले अवग्रह, ईहास्वरूप ज्ञान क्रम से उत्पन्न होते हैं। उन अवग्रह आदि ज्ञानों में एक ही समय स्वग्रहण की अपेक्षा से प्रत्यक्षपना और विषय अंश की अपेक्षा से परोक्षपना विरुद्ध नहीं है, तथा उपयोगरूप व्यक्ति और योग्यतारूप शक्तियुक्त एक अर्थसहितपना भी विरुद्ध नहीं है, क्योंकि नील, पीत आदि विचित्र प्रतिभासने वाले चित्रज्ञान के समान अवग्रह, ईहा आदि की वैसी प्रतीति होती है? भावार्थ : सौत्रान्तिक बौद्धों के मतानुसार ये तीन दृष्टान्त समझना चाहिए। बौद्धों ने शुद्धज्ञान अंश
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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