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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 272 प्रतीतिविरोधात् / रूपज्ञानोत्पत्तौ हि चक्षुर्बलाधानरूपेणालोकः कारणं प्रतीयते तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्यान्यथानुपपत्तेः तद्वदर्थोपि यदाद्यक्षणज्ञानस्य जनकः स्यान्न किंचिद्विरुध्यते तस्यालंबनत्वेन जनकत्वोपगमे व्याघातात्। आलंबनं ह्यालंबनत्वं ग्राह्यत्वं प्रकाश्यत्वमुच्यते तच्चार्थस्य प्रकाशकसमानकालस्य दृष्टं यथा प्रदीपः स्वप्रकाशस्य। न हि प्रकाश्योर्थः स्वप्रकाशकं प्रदीपमुपजनयति स्वकारणकलापादेव तस्योपजननात्। प्रकाश्यस्याभावे प्रकाशकस्य प्रकाशकत्वायोगात्। स तस्य जनक इति चेत्, प्रकाशकस्याभावे प्रकाश्यस्यापि प्रकाश्यत्वाघटनात्। स तस्य जनकोस्तु। तथा चान्योन्याश्रयणं प्रकाश्यानुपपत्तौ प्रकाशकानुपपत्तेस्तदनुत्पत्तौ च प्रकाश्यानुत्पत्तिरिति। यदि पुनः स्वकारणकलापादुत्पन्नयोः हैं जबकि उन चक्षुओं को आलोक द्वारा बल प्राप्त हो जाता है। अन्यथा (यदि अस्मदादिकों के रूपज्ञान की उत्पत्ति में बलाधायक रूप करके आलोक को कारण नहीं माना जायेगा तो) चाक्षुष ज्ञान का उस आलोक के साथ अन्वय, व्यतिरेक का अनुविधान करना नहीं बन सकेगा कि आलोक के होने पर चक्षु द्वारा दिवाचरों को रूपज्ञान होता है और आलोक के नहीं होने पर मन्दतेजोधारी चक्षु से रूपज्ञान नहीं हो पाता है अत: रूपज्ञान का कारण बलाधायकपने से आलोक हो सकता है। अर्थात् रूपज्ञान के मुख्य कारण चक्षुओं में से कुछ चक्षुओं की सहायता कर देता है। उस आलोक के समान ही यदि अर्थ को भी आद्य समय के ज्ञान का जनक कहोगे तब तो कोई विरोध नहीं है परन्तु उस अर्थ को ज्ञान का आलम्बन करके जनकपना मानने पर तो व्याघात दोष आता है अर्थात् ज्ञान का विषयभूत अर्थ अपना ज्ञान उत्पन्न कराने में प्रधान होकर अवलम्ब नहीं देता है। आलम्बन का अर्थ आलम्बनपना, जानने योग्यपना, प्रकाशित होने योग्यपना कहा जाता है। ऐसा वह आलम्बनपना तो प्रकाशक ज्ञान या प्रदीप, सूर्य आदि के समानकाल में स्थित अर्थ का देखा जाता है; जैसे कि अपने प्रकाश का आलम्बन कारण प्रदीप है। जो प्रकाशित होने योग्य अर्थ है, वह अपने प्रकाश करने वाले प्रदीप को उत्पन्न नहीं कराता है। किन्तु अपने वर्ती, तेल आदि कारण समुदाय से ही उस दीपक की उत्पत्ति हो जाती है अतः अर्थ या आलोक को ज्ञान का कारण-कारण कह सकते हो, किन्तु ज्ञान का आलम्बन कारण अर्थ है, ऐसा नहीं कह सकते हैं। प्रकाशने योग्य अर्थ के नहीं होने पर प्रकाशक की प्रकाशकता का योग नहीं है अत: वह अर्थ उस प्रकाशक का उत्पादक कारण माना जाता है। इस प्रकार अन्वय, व्यतिरेक बनाकर बौद्ध के कहने पर तो प्रकाशक के न होने पर प्रकाश्य अर्थ की प्रकाश्यता भी नहीं घटित होती है अतः वह प्रकाशक भी उस प्रकाश्य का जनक हो सकता है और ऐसा होने पर अन्योन्याश्रय दोष आ जाता है कि प्रकाश्य के न होने पर प्रकाशक नहीं बनता है और उस प्रकाशक के नहीं होने पर अर्थ का प्रकाश्यपना असिद्ध हो जाता है। यदि फिर बौद्ध कहे कि स्वकीय कारण कलापों से उत्पन्न प्रदीप और घट को स्वरूप से उत्पन्न होना स्वीकार किया है, किन्तु प्रदीप में प्रकाशपना और घट में प्रकाश्यपना धर्म परस्पर अविनाभाव रखते हुए एक दूसरे की अपेक्षा वाले होते है, अतः अन्योन्याश्रय होने पर भी उनमें अन्योन्याश्रय दोष का अभाव माना गया है। तब तो उसी प्रकार अपनी-अपनी सामग्री के बल के उत्पन्न ज्ञान और ज्ञेय अर्थों का भी स्वरूप
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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