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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 268 धारणापर्यंत तदनिंद्रियनिमित्तं स्मृत्यादीनां सर्वसंग्रहात्। पारंपर्यस्य चाश्रयणे वाक्यस्याविशेषतो वाभिप्रेतसिद्धिः। यथा हि धारणापर्यंतं तदिद्रियानिद्रियनिमित्तं तथा स्मृत्यादिकमपि तस्य परंपरयेंद्रियानिंद्रियनिमित्तत्वोपपत्तेः। किं पुनरत्र तदेवेंद्रियानिद्रियनिमित्तमित्यवधारणमाहोस्वित्तदिंद्रियानिद्रियनिमित्तमेवेति कथंचिदुभयमिष्टमित्याह;वाक्यभेदाश्रये युक्तमवधारणमुत्तरं। तदभेदे पुनः पूर्वमन्यथा व्यभिचारिता // 6 // अर्थ करने से तो अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा तक के मतिज्ञान, इस लक्षण से युक्त हो जाते हैं और वह अनिन्द्रिय निमित्त से उत्पन्न होता है। ऐसा विभाग करने से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, इन सबका ग्रहण हो जाता है। भावार्थ : धारणा पर्यन्तज्ञान तो इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनों से पृथक्-पृथक् उत्पन्न हो जाते हैं अत: पूरा वाक्य तो धारणा पर्यंत मतिज्ञानों में घटित होता है किन्तु स्मृति आदिक मतिज्ञान मन के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं अतः इस सूत्र का योग-विभाग कर अनिन्द्रिय पद ही अर्थ घटित होता है। परम्परा से होने वाले निमित्त कारणों का आश्रय लेने पर तो विशेषरूप से वाक्य का विभाग नहीं करने पर भी अभिप्रेत की सिद्धि हो जाती है। जैसे अवग्रह से प्रारम्भ कर धारणापर्यन्त उन मतिज्ञानों के निमित्तकारण इन्द्रिय अनिन्द्रिय हैं, उसी प्रकार स्मृति आदि के भी स्वकीय निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं, क्योंकि उन स्मृति आदि में परम्परा से इन्द्रिय और मन निमित्त कारण हैं। अर्थात्-सामान्यरूप से निमित्तकारणों का विचार करने पर सम्पूर्ण मतिज्ञानों के कारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय होते हैं। यहाँ फिर किसी का प्रश्न है कि क्या वह मतिज्ञान ही इन्द्रिय और अनिन्द्रियरूप निमित्त कारण से होता है। ऐसी अवधारणा करना अभीष्ट है? अथवा क्या वह मतिज्ञान इन्द्रिय, अनिन्द्रियरूप निमित्तों से ही उत्पन्न होता है। यह नियम करना इष्ट है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य महाराज कथंचित् दोनों ही अवधारणाओं को इष्ट करते हुए यह कारिका कहते हैं - . ‘तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं' इस सूत्र का योगविभाग कर वाक्यभेद का आश्रय करने पर तो इन्द्रिय और मन के निमित्त से मतिज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसी अवधारणा करना युक्त है अर्थात् - इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तों से ही वह मतिज्ञान होता है। धारणा पर्यन्त मतिज्ञान तो इन्द्रिय, मन दोनों से ही उत्पन्न होता है और स्मृति आदि मतिज्ञान मन से ही उत्पन्न होते हैं। यदि वाक्यभेद इष्ट नहीं है, तब यह अवधारणा करना अयुक्त है क्योंकि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानरूप वह मतिज्ञान तो स्वातंत्र्य से इन्द्रिय मन दोनों के द्वारा उत्पन्न नहीं होता है तथा उस वाक्यभेद का आश्रय नहीं करने पर इन्द्रिय मन से ही मतिज्ञान उत्पन्न होता है यह अवधारण करना उपयुक्त है। अन्यथा सूत्र - वाक्य के अर्थ में व्यभिचारी दोष उपस्थित होता है। भावार्थ : मन, इन्द्रिय दोनों ही स्वतंत्र कारणों से मतिज्ञान ही उत्पन्न होता है। इस पूर्व अवधारणा को नहीं मानने पर मतिज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों को भी इन्द्रियजन्यपने का प्रसंग आता है। अतः उद्देश्य दल में अवधारणा कर देने से व्यभिचार की संभावना नहीं है। मतिज्ञान ही इन्द्रिय अनिन्द्रिय उभय से जन्य
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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