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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 231 / / यद्यपि शिरसि सुखं पादे मे वेदनेति विशेषतः प्रदेशवृत्तित्वं सुखादीनामनुभूयते तदनुभवविशेषाणां च तथापि ज्ञानसामान्यस्य सर्वात्मद्रव्यवृत्तित्वमेव, ज्ञानमात्रशून्यस्यात्मविरोधादतिप्रसक्तेरिति साधितं उपयोगात्मसिद्धौ। ततो युक्तेयं व्यापकविरुद्धकार्योपलब्धिः॥ विरुद्धकार्यसंसिद्धिर्नास्त्येकांतेनपेक्षिण्य-। नेकांतेऽर्थक्रियादृष्टरित्येवमवगम्यते // 260 // निरपेक्षैकांतेन ह्यनेकांतो विरुद्धस्तत्कार्यमर्थक्रियोपलब्धिनिषेध्यस्याभावं साधयति॥ कारणार्थविरुद्धा तूपलब्धिर्ज्ञायते यथा। नास्ति मिथ्याचरित्रं मे सम्यग्विज्ञानवेदनात् // 261 // तद्धि मिथ्याचरित्रस्य कारणं विनिवर्तयेत्। मिथ्याज्ञाननिवृत्तिस्तु तस्य तद्विनिवर्तिका // 262 // ननु च सम्यग्विज्ञानान्मिथ्याज्ञाननिवृत्तिर्न मिथ्याचारित्रस्य निवृत्तिका प्रादुर्भूतसम्यग्ज्ञानस्यापि समाधान : उनका यह कथन अयुक्त है क्योंकि बुद्धि नामका गुण आत्मा के सकल अंशों में व्याप्त माना गया है। उस बुद्धि से शून्य पदार्थों को आत्मापने की हानि है, क्योंकि आत्मा का बुद्धि के साथ तदात्मक होना सिद्ध किया गया है। और बुद्धि शरीर में स्थित आत्मा का ज्ञान करा रही है। अर्थात् आत्मा के सकल अंशों में व्याप रही बुद्धि की स्थिति केवल शरीर में ही हो रही है। अत: आत्मा शरीर के परिमाण ही है, व्यापक नहीं है॥२५७-२५८-२५९॥ : मेरे सिर में सुख है, पाँव में वेदना है इत्यादि विशेष रूपों से आत्मा के सुख आदि का यद्यपि प्रदेशों में रहना अनुभव में आ रहा है और उन सुख आदि के विशेष सम्वेदन होने का भी अखण्ड आत्मा के कतिपय प्रदेशों में ही अनुभव होता है, तो भी ज्ञान सामान्य का सम्पूर्ण आत्मा-द्रव्य के प्रदेशों में वर्तना ही सिद्ध है। जो पदार्थ सामान्य ज्ञान से भी रहित है, उसके आत्मपन का विरोध है क्योंकि ज्ञान रहित को भी यदि आत्मा मान लिया जायेगा तो घट, पट आदि जड़ पदार्थों में भी आत्मा के अस्तित्व का प्रसंग आएगा। इस बात को हम उपयोगस्वरूप आत्मा को साधते समय सिद्ध कर चुके हैं अत: आत्मा को अव्यापक साधने के लिए दिये गए “कार्य में ही सुख आदि की उपलब्धि रूप हेतु व्यापक-विरुद्ध कार्य उपलब्धि है। यह युक्ति सिद्ध है।" ___ विरुद्ध कार्य उपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार है कि अनेकान्त अनपेक्षी एकान्त में किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं है। अतः अपेक्षाओं से रहित सर्वथा एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेक धर्मों से युक्त पदार्थ में . अर्थक्रिया का होना देखा जाता है॥२६०॥ ___ निरपेक्ष एकान्त से अनेकान्त विरुद्ध है उस अनेकान्त अर्थ का कार्य अर्थक्रिया की उपलब्धि है। वह निषेध करने योग्य एकान्त के अभाव की सिद्धि करती है यह विरुद्ध कार्य-उपलब्धिरूप हेतु है। कारणार्थ विरुद्ध की उपलब्धि तो ऐसे जान ली जाती है कि मेरे में मिथ्याचारित्र नहीं है, क्योंकि सम्यक्ज्ञान का वेदन हो रहा है, इस अनुमान में निषेध करने योग्य मिथ्याचारित्र का कारण मिथ्याज्ञान है उस मिथ्याज्ञान के विरुद्ध सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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