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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 220 उपलब्ध्यनुपलब्ध्योरेवेति सर्वहेतुविशेषाणामंतर्भाव: प्रतिभासते संक्षेपात्तेषां तत्प्रभेदत्वादिति तदिष्टि: श्रेयसी। न हि कार्यादयः संयोग्यादय: पूर्ववदादयो वीतादयो वा हेतुविशेषास्ततो भिद्यते तदप्रभेदत्वाप्रतीतेः॥ ननूपलभ्यमानत्वमुपलभो यदीष्यते। तदा स्वभावहेतुः सद्व्यवहारप्रसाधने // 211 // अथोपलभ्यते येन स तथा कार्यसाधनः। समानोनुपलंभेपि विचारोयं कथं न ते // 212 // यधुपलंभः कर्मसाधनस्तदा स्वभावहेतुरेव सद्व्यवहारे साध्ये करणसाधनमनुपलंभे तत: सोपि न स्वभावकार्यहेतुभ्यां भिन्नः स्यात् / कर्मसाधनत्वेनुपलभ्यमानत्वस्य स्वभावहेतुत्वात्। करणसाधनत्वेनुपलंभनस्य कार्यस्वभावयोर्विधिसाधनत्वादनुपलभस्य प्रतिषेधविषयत्वादन्यस्ताभ्यामनुपलंभ इत्यसंगतं इत्याह इस प्रकार सम्पूर्ण हेतुओं के भेद-प्रभेदों की उपलब्धि और अनुपलब्धि में ही अन्तर्भाव होना प्रतिभासित होता है, क्योंकि, संक्षेप से उन दो भेदों के ही वे सब कार्य आदि, भूत आदि, वीत आदि प्रभेद हैं। इस प्रकार उन दो भेदों को इष्ट करना ही श्रेष्ठ है। कार्य, कारण आदि तथा संयोगी, समवायी, एकार्थसमवायी और विरोधी तथा पूर्ववत् आदि अथवा वीत आदि ये सब हेतुओं के विशेष उन दो भेदों से पृथक् नहीं हैं, क्योंकि कार्य आदि को उपलब्धि अनुपलब्धि का प्रभेद रहितत्व प्रतीत नहीं होता है। प्रत्युत् कार्य आदि से अतिरिक्त अन्य भी पूर्वचर, व्यापक, व्यापक विरुद्ध आदि अनेक हेतु भी उपलब्धि और अनुपलब्धि में समा जाते हैं। बौद्धों की शंका : उपलंभ शब्द का अर्थ यदि कर्म अर्थ की प्रतिपत्ती कराते हुए उपलम्भ किया गयापन इष्ट किया गया है, तब तो स्वभाववान् के सद्भाव के व्यवहार को अच्छा साधने में वह उपलम्भ हेतु स्वभाव हेतु ही हुआ और जिसके द्वारा उपलम्भ किया जाता है वह उपलम्भ है, इसमें घञ् प्रत्यय करने पर उपलम्भ बनाया जायेगा तो उपलम्भ हेतु कार्य हेतु क्यों नहीं बनेगा? फिर कार्य और स्वभाव के अतिरिक्त उपलम्भ हेत के मानने की क्या आवश्यकता है? यह विचार अनपलम्भ शब्द में भी कर्म साधन और करण साधन व्युत्पत्ति करने पर समानरूप से लागू होता है अत: तुम्हारे यहाँ कार्य और स्वभाव अनुपलम्भ हेतुओं में ही सर्वहेतुओं का अन्तर्भाव क्यों नहीं कर लिया जाता है? // 211-212 // बौद्ध कह रहे हैं कि उपलंभ शब्द यदि कर्म में घञ्प्रत्यय कर सिद्ध किया गया है, तब तो स्वभाव हेतु ही होगा। अत: व्यवहार समानभाव के सद्भाव का व्यवहार को साध्य करने में साध्य का स्वभाव उपलम्भ हेतु है। यदि करण साधन उपलम्भ शब्द माना जायेगा तो उसका अर्थ कार्य हेतु होता है अत: वह भी स्वभाव और कार्य हेतुओं से भिन्न नहीं हो सकता। अनुपलम्भ शब्द को कर्म साधन मानने पर अनुपलम्भ का अनुपलब्धि में अंतर्भाव हो जाता है। बौद्धों के यहाँ विधि को साधने वाले कार्य और स्वभाव दो हेतु माने गये हैं। तथा उन दोनों से पृथक् प्रतिषेध को विषय करने वाला होने से तीसरा अनुपलम्भ हेतु इष्ट किया है। समाधान : यह बौद्धों का कथन असंगत है। इस बात को आचार्य महाराज कहते हैं -
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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