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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 218 / संतानत्वप्रसंगात्। तत एवमसंख्योसौ। एतेन संयोगादीनां संतानत्वे भिन्नसंतानगतानामप्येषां संतानत्वप्रसंगः समापादितो बोद्धव्यः। कार्यकारणपरम्पराविशिष्टा सत्तासंतान इति चेत् कुतस्तद्विशिष्टः कार्यकारणोपाधित्वादितिचेत्, कथमेवमनेका सत्ता न स्यात्। विशेषणानेकत्वादुपचारादनेकास्त्वितिचेत् कथमेवं परमार्थतोनेकसंतानसिद्धिर्येनैकसंतानांतरे प्रवृत्तिरविसंवादिनी स्यात्। येषां पुनरेकानेका च वस्तुनः सत्ता तेषां सामान्यतो विशेषतश्च तथा संतानैकत्वनानात्वव्यवहारो न विरुध्यते। न च विशिष्टकार्यकारणोपाधिकयोः अत: वह संतान अनेक में रहने वाली द्वित्व, त्रित्व, बहुत्व आदि संख्यास्वरूप नहीं है अपितु असंख्यात है। इस उक्त कथन से संयोग, विभाग आदि को संतान मानने पर भिन्न संतानों में प्राप्त भी इन संयोग आदि के संतान बन जाने का प्रसंग आएगा। इसका भी खण्डन कर दिया गया है, ऐसा समझना चाहिए। कार्य और कारणों की परम्परा से विशिष्ट एकसत्ता को यदि संतान कहोगे तो किस कारण से उस सत्ता में विशिष्टता प्राप्त हुई? यदि कार्यकारण रूप विशेषणों से सत्ता की विशिष्टता को स्वीकार करोगे तब तो इस प्रकार अनेक सत्तायें क्यों नहीं हो जाएंगी? अर्थात् अनेक कार्य कारणों में पृथक्-पृथक् रहने वाली सत्ता अनेक हो जायेगी। किन्तु वैशेषिकों ने सत्ता को एक माना है। यदि वैशेषिक कहें कि विशेषणों के अनेक होने के कारण उपचार से सत्ता अनेक होती है, वस्तुतः सत्ता एक है। इस पर जैन आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार वास्तविकरूप से अनेक संतानों की सिद्धि कैसे हो सकती है जिससे कि एक संतान से भिन्न दूसरी संतान में संवाद को रखने वाली प्रवृत्ति ठीक-ठीक हो सके? अर्थात् सत्ता एक है तो सम्पूर्ण पदार्थों की सत्तारूप संतान भी एक ही रहेगी, अन्य-अन्य नहीं होगी। परन्तु जिन (स्याद्वादियों) के यहाँ वस्तु की सत्ता एक और अनेक मानी गई है, उनके यहाँ सामान्यरूप और विशेषरूप से एकपन या अनेकपन का व्यवहार होना विरुद्ध नहीं है। कार्यकारणरूप उपाधियों से विशिष्ट सत्ता विशेष रूप संतानों का परस्पर में उपकार्य उपकारकभाव नहीं है क्योंकि वे सत्तायें नित्य हैं। नित्यों में कार्यकारणभाव नहीं होता है-ऐसा भी कहना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि सत्ता विशेषों में कथंचित् अनित्यपने का विरोध नहीं है। स्याद्वादसिद्धान्त में सम्पूर्ण पदार्थों का पर्यायार्थिक दृष्टि से अनित्यपना व्यवस्थित किया गया है अत: व्यक्तिरूप संतानियों के समान सत्ता विशेषरूप संतानों का भी कथंचित् उपकृत उपकारक भाव स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार (बीज संतान और अकुंर संतान) इन दोनों स्वरूप कार्यकारणों का परस्पर में एक दूसरे का ज्ञापकपना सिद्ध होता है अत: यह कार्यकारण उभयरूप हेतु लिंगों के कार्य, कारण और अकार्यकारणरूप तीन संख्या के नियम का विघटन कर देता है। इसमें परस्पर हेतु साध्य होकर एक से दूसरे का ज्ञापन करने में अन्योन्याश्रय दोष नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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