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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 215 ननु च यवबीजसंतानोत्थं च कारणं वानुभयं वा स्यात् सर्वं वस्तु कार्यं वा नान्या गतिरस्ति यतोऽन्यदपि लिंग संभाव्यतेऽन्यथानुपपन्नत्वाध्यासादिति चेन्न, उभयात्मनोपि वस्तुनो भावात् / यथैव हि कारणात्कार्येनुमानं वृष्ट्युत्पादनशक्तयोमी मेघा गंभीरध्वानत्वे चिरप्रभावत्वे च सति समुन्नतत्वात् प्रसिद्धैवंविधमेघबदिति / कार्यात्कारणे वह्निरत्र धूमान्महानसवदिति / अकार्यकारणादनुभयात्मनि ज्ञानं मधुररसमिदं फलमेवंरूपत्वात्तादृशान्यफलवदिति / तथैवोभयात्मकात् लिंगादुभयात्मके लिंगिनि ज्ञानमविरुद्धं परस्परोपकार्योपकारकयोरविनाभावदर्शनात् यथा बीजांकुरसंतानयोः / न हि बीजसंतानोंऽकुरसंतानाभावे भवति, नाप्यंकुरसंतानो बीजसंतानाभावे यतः परस्परं गम्यगमकभावो न स्यात्। तथा चास्त्यत्र देशे यवबीजसंतानो यवांकुरसंतानदर्शनात्। अस्ति यवांकुरसंतानो यवबीजोपलब्धेरित्यादि लिंगांतरसिद्धिः। ननूषरक्षेत्रस्थेन शंका : जौ के बीज की संतान स जौ का उत्पन्न होना कारण हेतु है। अथवा कार्यकारण दोनों से भिन्न अनुभय हेतु है या कार्यरूप हेतु है। संसार में सभी वस्तुएँ कार्य, कारण, अकार्यकारण इन तीन स्वरूप ही हैं अन्य कोई उपाय नहीं है जिससे कि इन तीन से पृथक् और भी किसी हेतु की सम्भावना की जा सके। जो कि अन्यथानुपपत्ति के अधिष्ठित करने से जैनों द्वारा पृथक् माना जा रहा है। ___समाधान : यह शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चौथे प्रकार की (कार्य-कारण दोनों स्वरूप) भी वस्तु विद्यमान है। जैसे प्रथम कारण से कार्य में अनुमान करते हैं कि “यह मेघ वृष्टि को उत्पन्न कराने वाली शक्ति से युक्त है, गम्भीर शब्द वाले और अधिक देर तक घटा मांडकर ठहरने वाले प्रभाव से युक्त हो रहे हैं, वृष्टि करने वाले मेघों में प्रसिद्ध अन्य मेघों के समान हैं। ___ तथा दूसरे हेतु द्वारा कार्य से कारण का अनुमान कर लेते हैं कि इस पर्वत में अग्नि है क्योंकि धुआँ दीख रहा है, रसोई घर के समान।" यह कार्य हेतु है। तथा कार्यकारणरहित अनुभयात्मक भिन्न स्वरूप उदासीन पदार्थ का ज्ञान होना तीसरा अनुमान है। उसका दृष्टान्त यह है कि यह आम्रफल मीठा रसवाला है, कोमलता और पीला आदि रूप का धारक होने से, इस प्रकार के मीठे, पीले अन्य फलों के समान। यह तीसरे प्रकार का हेतु है। इन तीन हेतुओं के समान ही चौथा हेतु भी मानना आवश्यक है। कार्यकारण इन दोनों स्वरूपसाध्य का ज्ञान हो जाने में भी कोई विरोध नहीं आता है। परस्पर में एक दूसरे का उपकारक रहे और उपकृत पदार्थों में भी एक दूसरे के साथ अविनाभाव देखा जाता है, जैसे बीज और अंकुरों की संतान के बिना बीज और अंकुर संतान भी नहीं होती है, जिससे कि परस्पर में ज्ञाप्यज्ञापक भाव न होता। अर्थात् अन्यथानुपपत्ति होने से बीजसंतान और अंकुरसंतान का हेतु-हेतुमद्भाव है। जैसे इस विवक्षित देश में जौ के बीजों की संतान चालू है क्योंकि जौ के अंकुरों की संतान देखी जा रही है तथा इस देश में जौ के अंकुरों की संतान है क्योंकि जौ के बीजों की उपलब्धि हो रही है। इसी प्रकार अन्य भी अनुमान के प्रयोग की सिद्धि है अर्थात् अनेक प्रकार के अनुमान ज्ञान सिद्ध हो सकते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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