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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 206 प्रमाणमविनाभावनिश्चयनिबंधनं प्रत्यक्षानुमानयोस्तत्राव्यापारादित्युक्तं तर्हि यत एवान्यथानुपपन्नत्वनिश्चयो हेतोस्तत एव साध्यसिद्धेस्तत्र हेतोरकिंचित्करत्वमिति चेन्न, ततो देशादिविशेषावच्छिन्नस्य साध्यस्य साधनात् सामान्यत एवोहात्तत्सिद्धेरित्युक्तप्रायं। अथवात्रिरूपहेतुनिष्ठानवादिनैव निराकृते। हेतोः पंचस्वभावत्वे तद्ध्वंसे यतनेन किम् // 195 // न हि स्याद्वादिनामयमेव पक्षो यत्स्वयं पंचरूपत्वं हेतोर्निराकर्तव्यमिति त्रिरूपव्यवस्थानवादिनापि तन्निराकरणस्याभिमतत्वात् परमतमभिमतप्रतिषिद्धमितिवचनात् तदलमत्राभिप्रयतनेनेति। हेतुलक्षणं वार्तिककारेणैवमुक्तं “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्” इति स्वयं स्याद्वादिनां तु तन्निराकरणप्रयत्ने त्रयं पंचरूपत्वं किमित्यपि वक्तुं युज्यते / सांप्रतं पूर्ववदादित्रयेण वीतादित्रयेण वा किमिति व्याख्यानांतरं समर्थयितुं तब तो जिस तर्कज्ञान से हेतु के अविनाभाव का (अन्यथानुपपन्नत्व का) निश्चय होता है, उस ही तर्क से साध्य की सिद्धि अर्थात् ज्ञप्ति हो जायेगी अत: उस साध्य का ज्ञापन करने में हेतु कुछ भी कार्यकारी नहीं हुआ अर्थात् अकिंचित्कर हो गया। ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि उस अविनाभावी हेतु से देश, काल, आकार आदि की विशेषताओं से युक्त साध्य की सिद्धि की जाती है, ऊहा से तो सामान्यरूप से ही उस साध्य की सिद्धि होती है अर्थात् जितने धूमवान् प्रदेश हैं वे अग्निमान् होते हैं। इस प्रकार सामान्यरूप से साध्य को हम पहले से ही जान रहे हैं किन्तु पर्वत में धूम के देखने से विशेष स्थल पर उस समय अग्नि को हेतु द्वारा विशेषरूप से जाना जाता है। इस बात को भी हम पूर्व में कई बार कह चुके हैं . कि व्याप्ति ज्ञान सर्वदेश, सर्वकालवर्ती अविनाभाव को प्रकट करता है। अथवा, हेतु के पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपों की व्यवस्था करने वाले बौद्ध द्वारा जब हेतु के उक्त तीन के साथ अबाधितत्व तथा सत्प्रतिपक्षत्व इन पाँच स्वभावसहितपने का निराकरण कर दिया गया है अर्थात् पंचरूपों का खण्डन करने पर ही तो बौद्धों के त्रैरूप्य की प्रतिष्ठा हो सकती है अत: उस पंचरूपत्व का खण्डन करने में हम व्यर्थ प्रयत्न क्यों करें? अर्थात् बौद्धमत में अबाधितविषयत्व और सत्प्रतिपक्षत्व हेतु को स्वीकार नहीं किया है॥१९५॥ स्याद्वादियों का यह पक्ष नहीं है कि हेतु के पंचरूपत्व का स्वयं ही इस प्रकार से निराकरण करना चाहिए। किन्तु हेतु के तीन रूप की व्यवस्था के पक्षधर बौद्धों के द्वारा भी उस पंचरूपपन का निराकरण करना अभीष्ट सिद्धान्त से ही अन्य नैयायिकों का मत खण्डित हो जाता है। दूसरों का विरुद्ध मन्तव्य अपने अविरुद्ध अभिमत से निषिद्ध कर दिया जाता है अतः विशेष प्रयत्न से कोई प्रयोजन नहीं है। राजवार्तिककार श्री अकलंकदेव ने हेतु का लक्षण इस प्रकार ही कहा है कि जहाँ अन्यथानुपपत्ति है, उस हेतु में तीन रूपों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात्-कुछ नहीं और जिस हेतु में अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ तीन रूपों से भी इष्टसिद्धि नहीं हो पाती है। ऐसे ही पाँच रूपों में लगा लेना / इस प्रकार स्याद्वादियों के यहाँ स्वयं उन रूपों के निराकरण करने का प्रयत्न होने पर वह तीन रूपपना या पांचरूपपना क्या कर सकता है? यानी कुछ नहीं, यह भी कहने के लिए युक्त हो जाता है। 1. नैयायिक 2. जैनाचार्य
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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