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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *195 संदिग्धेन्वयव्यंतिरेकसंदेहाच्चेति न वै मंतव्यं सर्वे भावाः क्षणिका: सत्त्वादित्यस्यान्वयासत्त्वेपि व्यतिरेकनिश्चयस्य स्वयमिष्टेरन्यथा तस्य गमकत्वायोगात्। नन्वत्र सत्येव क्षणिकत्वे सत्त्वमिति निश्चयमेवान्वयोस्तीति चेत् / अत्रोच्यतेसाध्ये सत्येव सद्भावनिश्चयः साधनस्य यः। सोन्वयश्चेत्तथैवोपपत्तिः स्वेष्टा परोऽफलः॥१७७॥ यथैव प्रतिषेधप्राधान्यादन्यथानुपपत्तिर्व्यतिरेक इतीष्यते तथाविधप्राधान्यात्तथोपपत्तिरेवान्वय इति किमनिष्टं स्याद्वादिभिस्तस्य हेतुलक्षणत्वोपगमात्। परोपगतस्तु नान्वयो हेतुलक्षणं पक्षधर्मत्ववत् नापि व्यतिरेकः। स हि विपक्षाद्व्यावृतिः विपक्षस्तद्विरुद्धस्तदन्यस्तदभावश्चेति त्रिविध एव। तत्रके होने पर ही धूम होगा या नहीं होगा, उस प्रकार अन्वय के संदिग्ध होने पर अग्नि के न होने पर कहीं भी धूम न होगा या होगा, ऐसा व्यतिरेक का संदेह भी हो जाता है। इस प्रकार बौद्धों को कभी नहीं मानना चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण भाव क्षणिक हैं सत् होने से, इस अनुमान के इस सत्त्व हेतु का अन्वय नहीं होने पर भी व्यतिरेक का निश्चय हो जाना स्वयं बौद्धों ने इष्ट किया है। अन्यथा (यानी अन्वय के समान व्यतिरेक भी नष्ट हो जायेगा तो) उस सत्त्व हेतु को क्षणिकत्व का ज्ञापकपना नहीं बन सकेगा। अतः सद्हेतु का लक्षण अन्वय ही नहीं हो सकता अपितु व्यतिरेक भी हो सकता है। शंका : इस हेतु में क्षणिकत्व के रहने पर ही सत्त्वहेतु का रहना, इस निश्चय को ही अन्वय मानते हैं जो कि अन्वय सत्त्वहेतु में विद्यमान है। (बौद्ध आग्रह) समाधान : इस प्रकार अवधारण का प्रकरण उपस्थित होने पर श्री विद्यानंद आचार्य प्रत्युत्तर में कहते हैं साध्य के होने पर ही साधन के सद्भाव का जो निश्चय है, वही अन्वय है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उस प्रकार साध्य के होने पर ही हेतु की उपपत्ति होना उन्होंने अपने यहाँ इष्ट कर लिया है, तब तो ठीक है। इससे पृथक् सपक्ष में वृत्तिरूप अन्वय मानना व्यर्थ है॥१७७।। - जिस प्रकार प्रतिषेध की प्रधानता होने से साध्य के बिना हेतु की अनुपपत्ति अन्यथानुपपत्ति नामक व्यतिरेक माना जाता है, उसी प्रकार विधि की प्रधानता होने से साध्य के होने पर ही हेतु की अवस्थिति रूप तथोपपत्ति ही अन्वय है। यह क्या अनिष्ट है ? अर्थात् नहीं। स्याद्वादियों के द्वारा उस तथोपपत्तिरूप अन्वय को हेतु का लक्षण स्वीकार किया गया है। नैयायिक, बौद्ध आदि के द्वारा स्वीकृत सपक्ष में वर्तना रूप अन्वय हेतु का लक्षण नहीं है जैसे कि पक्षधर्मत्व हेतु का रूप नहीं है। यहाँ तक पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्व इन दो रूपों का हेतु का लक्षणपना खण्डित किया है। ___बौद्धों के द्वारा स्वीकृत विपक्ष व्यावृत्त रूप व्यतिरेक भी हेतु का लक्षण नहीं है, क्योंकि वह तीसरा रूप विपक्ष से व्यावृत्ति होना है। वह विपक्ष से व्यावृत्ति साध्य विरुद्ध विपक्ष, उस साध्य से अन्य विपक्ष अथवा उस साध्य का अभावरूप विपक्ष, इन तीन प्रकार का ही विपक्ष हो सकता है। इन तीनों में से एकएक का विचार करते हैं -
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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