SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 187 ते॥ सिद्ध्येत्? सर्वथा विशेषाभावात्। तदयं नीलाद्यर्थं पारमार्थिकमिच्छता चाद्यमवितथोपगंतुमर्हत्येवेति तदनुमाने सप्त हेतवः स्युः। यतश्चैवं कृत्तिकोदयादेः कथंचित्प्रतीत्यतिक्रमेण स्वभावहेतुत्वं ब्रुवतः सर्वः स्वभावहेतुः स्यादेक एव। संबंधभेदात्तद्भेदं साधयतः सामान्यतो विशेषतश्च स्वेष्टलिंगसंख्याक्षतिः। विषयभेदाच्च तद्भेदमिच्छतः सप्तविधो हेतुरर्थस्यास्तित्वादिसप्तरूपतयानुमेयत्वोपपत्तेः॥ तस्मात्प्रतीतिमाश्रित्य हेतुं गमकमिच्छता। पक्षधर्मत्वशून्योस्तु गमकः कृत्तिकोदयः॥१५७॥ पल्वलोदकनैर्मल्यं तदागस्त्युदये स च / तत्र हेतुः सुनिर्णीतः पूर्वं शरदि सन्मतः // 15 // चंद्रादौ जलचंद्रादि सोपि तत्र तथाविधः / छायादिपादपादौ च सोपि तत्र कदाचन // 159 // नील आदि अर्थों को वस्तुभूत चाहने वाला यह बौद्ध भाव आदि सात धर्मों को सत्यार्थरूप स्वीकार करने के लिए योग्य हो ही जाता है। इस प्रकार उन सात धर्मों के अनुमान कराने में विशेषरूप से सात हेतु हो जाएँगे। अतः प्रतीति का अतिक्रमण करके इस प्रकार आकाश को पक्ष मानकर कृत्तिकोदय, भरण्युदय आदि को स्वभावहेतुपना कहने वाले बौद्धों के यहाँ सभी ज्ञापक हेतु स्वभाव हेतु हो जाने से एक स्वभाव नाम का ही हेतु होगा। यदि जन्यजनक संबंध और तादात्म्यसंबंध तथा प्रतियोगित्वसंबंध के भेद से उस ज्ञापक हेतु के कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि इन तीन भेदों की सिद्धि करोगे तब तो सामान्य और विशेषरूप से स्वीकृत स्व इष्ट हेतुसंख्या की क्षति हो जायेगी। अर्थात् छत्र आदि कारण हेतुओं में तथा व्याप्य, पूर्वचर, सहचर, भावसाधक अनुपलब्धि, अभावसाधक उपलब्धि आदि हेतु के भेदों में भी जनकजन्य संबंध, व्याप्यव्यापकसंबंध, पूर्वोत्तरकालसम्बन्ध आदि सम्बन्धों के भेद होने से अनेक हेतु सिद्ध हो जायेंगे तथा विषयों के भेद से उस हेतु के भेदों को स्वीकार करने वाले बौद्ध के यहाँ सात प्रकार के हेतु सिद्ध हो जाएंगे। क्योंकि, अस्तित्व आदि सात धर्मरूप अर्थ का अनुमेयपना सिद्ध है। अतः प्रमाणों से प्रसिद्ध प्रतीति के आश्रय से हेतु की ज्ञापकता चाहने वाले बौद्धों के द्वारा पक्ष धर्म से शून्य भी कृत्तिकोदय हेतु उत्तरकाल में होने वाले रोहिणी साध्य का या पूर्वकाल में हो चुके भरण्युदय साध्य का ज्ञापक हो जाता है अतः हेतु का पक्षधर्मत्व लक्षण ठीक नहीं है, अव्याप्ति दोष से दूषित है। 157 // सरोवर का जल निर्मल है, अगस्ति नाम के तारे का उदय होने से, इस अनुमान में अगस्ति का उदय हेतु तो अगस्ति में रहता है और निर्मलतारूप साध्य सरोवर के पानी में रहता है, किन्तु शरद् ऋतु के आने पर उस समय साध्य के साथ नियतरूप से वहाँ हेतु निर्णीत हो जाता है॥१५८॥ अर्थात् पक्ष धर्म से शून्य अगस्ति का उदयरूप हेतु तालाब के जल की स्वच्छता का निमित्त हो जाता है। उसी प्रकार अविनाभाव सम्बन्ध से पक्षधर्म से शून्य जल में प्रतिबिंबित चन्द्र आदि भी आकाश में स्थित सूर्य, चन्द्रमा आदि के उपराग (ग्रहण) कलाहीनता, आदि का अनुमान करने में गमक होते है। तथा वृक्ष जल आदि को साधने में पक्षधर्मत्व शून्य छाया, शीतलता आदि हेतु गमक माने गए हैं। वहाँ कभी उन हेतुओं का अपने साध्य के साथ सम्बन्ध जाना जा चुका है॥१५९॥ दूर स्थित शुष्क पत्ते रूप स्वहेतु
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy