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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 167 प्रत्यक्षस्यापि स्वार्थे संबंधो ग्राह्यग्राहकभावः कार्यकारणभावो वाभ्युपगंतव्य एवान्यथा ततः स्वार्थप्रतिपत्तिनियमायोगादतिप्रसंगात् / स च यदि गृहीत एवाध्यक्षप्रवृत्तिनिमित्तं तदा केन गृह्यत इति चिंत्यं स्वेन प्रत्यक्षांतरेणानुमानेन वा॥ स्वतश्चेत्तादृशाकारा प्रतीति: स्वात्मनिष्ठिता। नासौ घटोयमित्येवमाकारायाः प्रतीतितः॥१०५॥ प्रत्यक्षांतरतश्चेनाप्यनवस्थानुषंगतः। तत्संबंधस्य चान्येन प्रत्यक्षेण विनिश्चयात् // 106 // नानुमानेन तस्यापि प्रत्यक्षायत्तता स्थितेः। अनवस्थाप्रसंगस्य तदवस्थत्वतस्तराम् // 107 // स्वसंवेदनतः सिद्धे स्वार्थसंवेदनस्य चेत् / संबंधोक्षधियः स्वार्थे सिद्ध कश्चिदतींद्रियः॥१०८॥ प्रत्यक्ष का भी अपने ग्राह्यविषय में ग्राह्य-ग्राहकभाव, कार्यकारणभाव अथवा विषयविषयीभाव रूप कोई सम्बन्ध अवश्य स्वीकार करना ही पड़ेगा अन्यथा उस प्रत्यक्ष से अपने ग्राह्य अर्थों की प्रतीति करने के नियम का अयोग होने से अतिप्रसंग दोष भी आयेगा। अर्थात् सम्बन्ध को नहीं प्राप्त हुए देशान्तर, कालान्तर के पदार्थों को भी प्रत्यक्ष जान सकेगा, अतः सम्बन्ध जानना आवश्यक है। यदि वह सम्बन्ध किसी ज्ञान से गृहीत होकर ही अध्यक्ष की प्रवृत्ति का निमित्त कारण बनेगा, तो वह सम्बन्ध पुनः किस ज्ञान से ज्ञात होगा? इसका विचार करना चाहिए, क्या वह प्रत्यक्ष स्वयं अपने से ही अपने उत्थापक सम्बन्ध का ज्ञान कर लेगा? या प्रत्यक्षों और अनुमानान्तरों के द्वारा प्रत्यक्ष के कारण सम्बन्ध की ज्ञप्ति करेगा? वह तादृशाकार सम्बन्ध की ज्ञप्ति स्वयं अपने प्रत्यक्ष स्वरूप में प्रतिष्ठित प्रतीत नही होता है। अर्थात् कोई भी प्रत्यक्ष स्वयं अपने आप सम्बन्ध को नहीं जान रहा है। क्योंकि वह घट है' 'यह पुस्तक है' इस प्रकार आकार वाली प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीतियाँ हो रही हैं, इनमें सम्बन्ध प्रतिभासित नहीं है। द्वितीय विकल्प के अनुसार अन्य प्रत्यक्षों से सम्बन्ध का ग्रहण होना मानना ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। सम्बन्ध का और उन प्रत्यक्षों के उत्थापक सम्बन्धों का भी निर्णय पृथक्-पृथक् अन्य प्रत्यक्षों के द्वारा ही किया जाता है॥१०५-१०६।। तथा, अनुमान के द्वारा प्रत्यक्ष के उत्थापक उस सम्बन्ध का ग्रहण होना भी नहीं बनता है, क्योंकि उस अनुमान की भी स्थिति प्रत्यक्ष के अधीन है अतः उस प्रत्यक्ष के लिए पुन: अनुमान द्वारा सम्बन्ध ग्रहण करना आकांक्षित होगा, अत: अनवस्था दोष का प्रसंग वैसा का वैसा ही रहेगा॥१०७॥ अपने विषयभूत अर्थ की ज्ञप्ति करने वाले इन्द्रियजन्य ज्ञान का अपने अर्थ में सम्बन्ध का ग्रहण यदि स्वसंवेदन से ही सिद्ध हुआ माना जावेगा (अर्थात् स्व के द्वारा योग्य अर्थ का ज्ञान करा देना ही सम्बन्ध का ग्रहण है) तब तो कोई अतीन्द्रिय सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है, जिसका कि दूसरा नाम क्षयोपशम है। अथवा स्वार्थसंवेदन की स्वसंवेदन की स्वसंवेदन से सिद्धि होने के कारण यदि इन्द्रियजन्य ज्ञान का कोई लब्धिरूप अतीन्द्रिय सम्बन्ध सिद्ध है तो वह क्षयोपशम नाम की यह योग्यता ही है। यह योग्यता इस तर्कज्ञान में भी समान है। तर्कज्ञान के विषयभूत सम्बन्ध के ज्ञान की स्वतः संवित्ति होने से वह योग्यता
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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