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________________ परिशिष्ठ-४०४ चार्वाकों की मान्यता है कि- (1) पृथिवी, अप, तेज और वायु इन चार भूतों का संघात ही आत्मा है। इन चार भूतों के विशिष्ट संयोग से शरीर की उत्पत्ति के साथ चैतन्य शक्ति भी उत्पन्न हो जाती है। अतः चैतन्य आत्मा का धर्म न होकर शरीर का ही धर्म है। इस प्रकार चार्वाक 'देहात्मवाद' सिद्धान्त के प्रवर्तक है। (2) मरण ही मुक्ति है, परलोक नहीं है। धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि कुछ भी नहीं है, न पुण्य-पाप के फल स्वर्ग, नरक आदि हैं। जीवन का ध्येय मात्र इसी भौतिक जीवन का सुख है। चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, अनुमान आदि को नहीं, अर्थात् आँखों से जो कुछ दिखाई देता है, वही सत्य है, अन्य कुछ नहीं। न कोई तीर्थंकर प्रमाण है, न कोई आगम है, न वेद है। भारतीय दर्शनों में मीमांसक और चार्वाक- ये दो दर्शन सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार नहीं करते। // बौद्ध दर्शन बुद्ध ने विशेष रूप से धर्म का ही उपदेश दिया, दर्शन का नहीं। फिर भी बुद्ध के बाद बौद्ध दार्शनिकों ने बुद्ध के वचनों के आधार से दार्शनिक तत्त्वों को खोज निकाला। बुद्ध के तीन मौलिक सिद्धान्त हैं- 1. सर्वमनित्यम्- सब कुछ अनित्य है। 2. सर्वमनात्मम्- सब पदार्थ आत्मा (स्वभाव) से रहित हैं। 3. निर्वाणं शान्तम्- निर्वाण ही शान्त है। ___अनात्मवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, क्षणभङ्गवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद, अन्यापोह आदि इस दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त हैं। बौद्ध दर्शन में आत्मा का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है किन्तु रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पाँच स्कन्धों के समुदाय को ही आत्मा माना गया है। . ' प्रतीत्यसमुत्पाद - हेतु और प्रत्यय की अपेक्षा से पदार्थों की उत्पत्ति; इसी को सापेक्षकारणतावाद भी कहते हैं : हेतुप्रत्ययापेक्षो भावानामुत्पादः प्रतीत्यसमुत्पादार्थः / माध्यमिककारिकावृत्ति पृ.७ बौद्ध दर्शन के चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं जिनके अपने-अपने विशिष्ट दार्शनिक मत हैं- (1) वैभाषिकबाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद। (2) सौत्रान्तिक - बाह्यार्थानुमेयवाद (3) योगाचार - विज्ञानवाद और (4) माध्यमिक - शून्यवाद। वैभाषिक मत - अन्तरंग (आत्मा) और बाह्य पदार्थ (दृश्य, जड़ पदार्थ) दोनों को प्रत्यक्ष ज्ञानगम्य तथा वास्तविक मानता है। बाह्य जड़ पदार्थों को प्रत्यक्ष ज्ञानगम्य मानने के कारण इन्हें बाह्यार्थ प्रत्यक्षवादी भी कहा जाता है। ये भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान तीनों कालों को वास्तविक सत्ता स्वरूप मानते हैं। तत्त्वों की अनेकता (75 तत्त्व) तथा नैरात्म्य में विश्वास करते हैं। निर्वाण को सत् मानते हुए भी उसे अभावात्मक ही मानते हैं। वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक दोनों मानते हैं कि सब पदार्थ अन्त में विभक्त होकर अणुओं के रूप में आ जाते हैं। सौत्रान्तिक भी बाह्य और अभ्यन्तर दोनों पदार्थों को मानते हैं। परन्तु इतनी विशेषता है कि वैभाषिक बौद्ध बाह्य पदार्थ को प्रत्यक्ष ज्ञानगम्य मानते हैं जबकि सौत्रान्तिक बौद्ध बाह्य पदार्थों को मात्र अनुमानगम्य मानते हैं। ज्ञान के विषय में ये स्वप्रकाशवादी हैं। ज्ञान अपना संवेदन आप ही करता है इसी का नाम स्वसंवित्ति है। वैभाषिक तीनों कालों को मानते हैं पर सौत्रान्तिक मात्र वर्तमान की सत्ता ही मानते हैं। निर्वाण को
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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