SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 384 नाप्यनुपप्लवो व्याघातात्, किं तमुपप्लव एवेति नानेकांतावतार इति चेत्, तर्हि प्रमाणतत्त्वं नादुष्टकारकसंदोहोत्पाद्यत्वेन नापि बाधारहितत्वादिभिः स्वभावैर्व्यवस्थाप्यते व्याघातात्, किंतु प्रमाणं प्रमाणमेव प्रमाणत्वेनैव तस्य व्यवस्थानात् / न हि पृथिवी किमग्नित्वेन व्यवस्थाप्यते जलत्वेन वायुत्वेन वेति पर्यनुयोगो युक्तः, पृथिवीत्वेनैव तस्याः प्रतिष्ठानात् / प्रमाणस्वभावा एवादुष्टकारकसंदोहोत्पाद्यत्वादयस्ततो न तैः प्रमाणस्य व्यवस्थापने व्याघात इति चेत्, किमिदानीं पर्यनुयोगेन? तत्स्वबलेन प्रमाणस्य सिद्धत्वात्। स्यान्मतं / न विचारात्प्रमाणस्यादष्टकारकसंदोहोत्याद्यत्वादयः स्वभावाः प्रसिद्धाः परोपगममात्रेण तेषां प्रसिद्धः। आता है। अर्थात्- उपप्लव में उपप्लव न होने से अनुपप्लव कहना विरुद्ध है। शंका- वह उपप्लव क्या है? उत्तर- उपप्लव उपप्लव ही है। इसमें अनेकान्तवाद का अवतार नहीं है। जैनाचार्य इसका प्रत्युत्तर देते हैं- यदि उपप्लव उपप्लव ही है तो प्रमाणतत्त्व भी अदुष्ट कारक समुदाय जन्य नहीं है, और न बाधारहित जन्य है, और न प्रवृत्ति की सामर्थ्य से व्यवस्थित है। इन स्वभावों के द्वारा प्रमाण व्यवस्थित नहीं है। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। किन्तु निश्चय नय से प्रमाण प्रमाण स्वरूप ही है। प्रमाण की व्यवस्था स्वकीय प्रमाणत्व से ही होती है। जैसे घर की व्यवस्था घर ही है। अग्नि के द्वारा पृथिवी की व्यवस्था नहीं हो सकती। तथा जल के द्वारा और वायु के द्वारा पृथ्वी की व्यवस्था की शंका उठाना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि पृथ्वी की व्यवस्था पृथ्वी के द्वारा ही प्रतिष्ठित है। (अर्थात् जैसे आकाश अपने स्वरूप से ही प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार प्रमाण स्वकीय प्रमाण रूप से ही प्रतिष्ठित है।) तत्त्वोपप्लववादी कहता है कि निर्दोष कारणों के समुदाय से जनकत्व (उत्पन्नत्व), बाधारहितत्व और प्रवृत्ति कराने में समर्थत्व आदि ये सर्व प्रमाण के स्वभाव ही हैं। अत: इनके द्वारा प्रमाणतत्त्व की व्यवस्था कराने में व्याघात दोष नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि यदि उपप्लववादी प्रमाण को प्रमाण ही मानता है- 'निर्दोष कारण जन्यत्व आदि से व्याघात दोष नहीं मानता है' तब तो इस समय प्रमाण तत्त्व में प्रश्न क्यों उठाता है? जबकि उसने प्रमाणतत्त्व को स्वकीय शक्ति के द्वारा सिद्ध हुआ स्वीकार किया है। अर्थात् जब प्रमाणतत्त्व अपने स्वरूप से सिद्ध है तो उसका खण्डन नहीं कर सकते। और प्रमाणतत्त्व की सिद्धि हो जाने पर प्रमेय तत्त्व भी सिद्ध हो जाता है। अतः तत्त्वोपप्लववाद सिद्ध नहीं हो सकता। तत्त्वोपप्लववादी कहता है कि विचार करने पर निर्दोष कारण से उत्पन्न होना आदि प्रमाण के स्वभाव सिद्ध नहीं होते हैं। अपितु दूसरों (जैनाचार्यों) के स्वीकार करने मात्र से निर्दोष कारण जन्यत्व आदि को प्रमाण का स्वभाव कह दिया है। क्योंकि उनके इस प्रकार की प्रसिद्धि है। अर्थात् जैन दर्शनानुसार निर्दोषकारण जन्यत्व आदि को प्रमाण का स्वभाव माना है इसलिए हमने भी उनको प्रमाण का स्वरूप कह दिया है परन्तु विचार करने पर ये प्रमाण के स्वभाव सिद्ध नहीं होते हैं। इसलिए उपरिकथित संशयों का अवतरण करके तत्त्वोपप्लववादी के प्रति कुशंका करना युक्त नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy