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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 379 किंचिनिर्णीतमाश्रित्य विचारोऽन्यत्र वर्तते। सर्वविप्रतिपत्तौ हि क्वचिन्नास्ति विचारणा // 140 // न हि सर्व सर्वस्यानिर्णीतमेव विचारात्पूर्वमिति स्वयं निश्चिन्वन् किंचिन्निर्णीतमिष्टं प्रतिक्षेप्नुमर्हति विरोधात्। तत्रेष्टं यस्य निर्णीतं प्रमाणं तस्य वस्तुतः। तदंतरेण निर्णीतेस्तत्रायोगादनिष्टवत् // 141 // यथानिष्टे प्रमाणं वास्तवमंतरेण निर्णीतिर्नोपपद्यते तथा स्वयमिष्टेऽपीति / तत्र निर्णीतिमनुमन्यमानेन तदनुमंतव्यमेव। खण्डन, मण्डन, इष्ट, अनिष्ट आदि की कल्पना कर लेते हैं। अद्वैत के सिद्ध हो जाने पर पीछे से सब को त्याग कर शुद्ध संवेदन की प्रतीति कर लेते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार इन बौद्धों का यह कहना भी शून्यवादी और तत्त्वों का उपप्लव कहनेवालों के समान प्रलापमात्र ही है। (केवल आग्रहभाव ही है)। कुछ भी निर्णीत किये गये प्रमाण या हेतु तथा आगम का आश्रय लेकर तो अन्य विवादस्थल पदार्थ में विचार किया जाता है। परन्तु बौद्धों के तो सब ही उपाय और उपेय तत्त्वों में विवाद पड़ा हुआ है (अर्थात् किसी भी प्रमाण और प्रमेय का निर्णय नहीं है)। ऐसी दशा में तत्त्वों की परीक्षा करना ही कैसे हो सकता है।।१३८-१३९-१४०॥ सभी वादी-प्रतिवादियों को विचार करने से पूर्व सभी तत्त्व अनिर्णीत ही होते हैं। इस बात को स्वयं निश्चय करता हुआ शून्यवादी या तत्त्वोपप्लववादी कुछ निर्णय किये हुए इष्ट पदार्थ को अवश्य इष्ट करता है। अन्यथा सभी प्रकार से सब का खण्डन करने के लिए नियुक्त नहीं हो सकता है। क्योंकि इसमें विरोध है। अर्थात् जो विचार करने से पहले निर्णय न होना कह रहा है, उस वादी को अंतरंग में कुछ-न-कुछ तत्त्व तो अभीष्ट है ही। इस तत्त्व को माने बिना खण्डन, मण्डन, किस उद्देश्य से होगा। ___ जिसके मत में कुछ भी इष्ट तत्त्व का निर्णय किया गया है, उसके मत में वास्तविक रूप से कोई प्रमाण अवश्य माना गया है। क्योंकि प्रमाण के बिना इष्ट पदार्थ का निश्चय नहीं कर सकते, जैसे . प्रमाण के बिना अनिष्ट तत्त्व का निर्णय भी नहीं होता है।।१४१॥ ... जैसे अपने को अनिष्ट पदार्थ में वास्तविक प्रमाण को माने बिना अनिष्टपने का निर्णय करना सिद्ध नहीं हो सकता है, वैसे ही स्वयं को अभीष्ट पदार्थ में भी प्रमाण माने बिना निर्णय नहीं हो सकता है। अतः उस इष्ट-अनिष्ट पदार्थ में निर्णय करने को विचारपूर्वक स्वीकार करने वाले अद्वैतवादियों को प्रमाण अवश्य स्वीकार कर लेना ही चाहिए। (बौद्धों ने स्वसंवेदन को माना है पर उसे) प्रमाण, प्रमेय, ग्राह्य, ग्राहक, स्वभावों से रहित स्वीकार किया है। ऐसे कोरे संवेदन से इष्ट, अनिष्ट पदार्थों का निर्णय नहीं हो सकता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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