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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -375 न संवेदनाद्वैतं प्रत्यक्षांतरादनुमानाद्वा स्थाप्यते स्वतस्तस्य स्थितेरिति न साधीयः, सर्वदा ग्राह्यग्राहकाकाराक्रांतस्य संवेदनस्यानुभवनात्, स्वरूपस्य स्वतो गतेरिति वक्तुमशक्तेः। संविदि ग्राह्यग्राहकाकारस्यानुभवनं भ्रांतमिति न वाच्यं, तद्रहितस्य सत्यस्य संवित्त्यभावात् / सर्वदावभासमानस्य सर्वत्र सर्वेषां भ्रांतत्वायोगात्। यथैवारामविभ्रांतौ पुरुषाद्वैतसत्यता। तत्सत्यत्वे च तद्भ्रान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः // 130 // तथा वेद्यादिविभ्रांतौ वेदकाद्वैतसत्यता। तत्सत्यत्वे च तद्धान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः॥१३१॥ कथमयं पुरुषाद्वैतं निरस्य ज्ञानाद्वैतं व्यवस्थापयेत् / स्यान्मतं / न वेद्याद्याकारस्य भ्रांतता संविन्मात्रस्य सत्यत्वात्साध्यते किं त्वनुमानात्ततो नेतरेतराश्रयः इति तदयुक्तं, लिंगाभावात् / (बौद्धों के अनुसार) स्वसंवेदन के अद्वैत को अन्य प्रत्यक्षों से अथवा अनुमान प्रमाणों से या आगमवाक्यों से स्थापित नहीं किया जाता है किन्तु उस शुद्ध अद्वैत की तो अपने आप से ही स्थिति हो रही है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना भी उचित नहीं है क्योंकि सर्वदा ग्राह्य आकार और ग्राहकाकारों से वेष्टित हुए ही संवेदना का सब जीवों को अनुभव हो रहा है। अत: ग्राह्य-ग्राहक अंशों से रहित माने गये संवेदन के स्वरूप की अपने से ही ज्ञप्ति हो जाती है, यह भी नहीं कह सकते हो तथा ज्ञान में ग्राह्य और ग्राहक आकार के अनुभव करने की मनुष्यों को भ्रान्ति है। (बौद्धों का) ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि उन ग्राह्य-ग्राहक अंशों से रहित होकर समीचीन प्रमाण की ज्ञप्ति होना साव नहीं है। (प्रमाणात्मकज्ञान तो स्व और अर्थरूपग्राह्य के ग्राहक ही देखे जाते हैं)। जो पदार्थ सदा सर्वस्थानों में सर्व ही व्यक्तियों के द्वारा समीचीन अनुभव में आ रहा है उसको भ्रांत नहीं कह सकते हैं। उसमें भ्रान्तपने की अयोग्यता होती है अन्यथा सभी सम्यग्ज्ञान भ्रांत हो जावेंगे। घट, पट आदि भिन्न पर्यायें भ्रांत हैं। एक ब्रह्म ही सत्य है ऐसा कहने वाले (ब्रह्मवादी) के प्रति बौद्ध कहते हैं कि- आराम, घट, पट, आदि अनेक भिन्न पर्यायों का भ्रान्तपना सिद्ध होने पर तो ब्रह्माद्वैत का सत्यपना सिद्ध हो और उस ब्रह्माद्वैत का सत्यपना सिद्ध होने पर उन घट, पट आदि अनेक भिन्न पर्यायों का भ्रांतपना सिद्ध होवे। जैसे ही यह अन्योन्याश्रय दोष ब्रह्मवादियों के प्रति उठाया जाता है वैसे ही तुमसे (बौद्धों के प्रति) भी कह सकते हैं कि वेद्य अंश, वेदक अंश, प्रमाणत्व अंश, घट, पट आदि अनेक भिन्न पदार्थों के भ्रांतरूप सिद्ध होने पर तो संवेदनाद्वैत का सत्यपना सिद्ध होवे। और उस अकेले संवेदनाद्वैत की सत्यता सिद्ध होने पर उन वेद्य आदि भिन्न तत्त्वों की भ्रांति होना सिद्ध होवे। अतः दोनों अद्वैतों में इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष समान है॥१३०-१३१॥ . - यह बौद्ध पुरुषाद्वैत का खण्डन करके अपने ज्ञानाद्वैत की व्यवस्था कैसे करा सकेगा? (क्योंकि दूसरे के खण्डन में जो युक्ति दी जा रही है, वही युक्ति इस पर भी लागू हो जाती है।) (बौद्ध) वेद्य आकार, वेदनाकार और संवित्ति आकार आदिका भ्रान्तपना केवल संवेदन (अद्वैत) की सत्यता से सिद्ध नहीं है, किंतु वेद्य आदि की भ्रान्तता अनुमान से भी सिद्ध है। अतः अन्योन्याश्रय दोष हम पर नहीं आता है। इस प्रकार बौद्धों का कहना युक्तियों से रहित है। क्योंकि इसकी सिद्धि में कोई समीचीन हेतु नहीं है। (जिससे कि अनुमान द्वारा वेद्य आदि आकारों को भ्रान्तपना सिद्ध कर सके)।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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