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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 363 सदसदात्मकत्वमायातं तस्य तथोपलभ्यत्वात् / न च सदसत्त्वादिधमैरप्यनुपलभ्यं वस्त्विति शक्यं प्रत्येतुं खरशृंगादेरपि वस्तुत्वप्रसंगात् / धर्मधर्मिरूपतयानुपलभ्यं स्वरूपेणोपलभ्यं वस्त्विति चेत्, यथोपलभ्यं तथा सत् यथा चानुपलभ्यं तथा तदसदिति। तदेवं सदसदात्मकत्वं सुदूरमप्यनुसृत्य तस्य प्रतिक्षेप्नुमशक्तेः। ततः सदसत्स्वभावौ पारमार्थिको क्वचिदिच्छताऽनंतस्वभावा: प्रतीयमानास्तथात्मनोभ्युपगंतव्याः। तेषां च क्रमतो विनाशोत्पादौ तस्यैवेति सिद्धं त्र्यात्मकत्वमात्मनो गुणासंबंधेतररूपाभ्यां नाशोत्पादव्यवस्थानादात्मत्वेन ध्रौव्यत्वसिद्धेः। - है, अवाच्य है, आदि इन विशेषणों का प्रयोग भी वस्तु में कैसे कर सकेंगे? तथा “अवाच्य” इस शब्द से भी वस्तु का निरूपण कैसे कर सकेंगे? (क्योंकि सर्वथा अवाच्य मानने पर वस्तु, अवाच्य, स्वभावरहित, सत् नहीं, उभय नहीं, आदि शब्दों की भी प्रवृत्ति होना वस्तु में घटित नहीं हो सकता)। तत्त्व सदात्मक और असदात्मक दोनों रूप है आत्मा, स्वलक्षण, विज्ञान आदि तत्त्वों को वचनों के द्वारा अवाच्य मानने पर भी वे जानने योग्य स्वभाव वाले हैं, यह तो बौद्धों को अवश्य ही मानना पड़ेगा। (अन्यथा उनका जगत् में सद्भाव ही न हो सकेगा) आत्मा आदि तत्त्व अपने-अपने स्वभावों से ही जाने जाते हैं। अतः स्वरूप की अपेक्षा अस्ति हैं और दूसरे पदार्थों के स्वरूप से नहीं जाने जाते हैं अत: पर की अपेक्षा नास्ति हैं। इस प्रकार सदात्मक और असदात्मक तत्त्व सिद्ध होता है। क्योंकि उन आत्मा आदि तत्त्वों की इस प्रकार से उपलब्धि सिद्ध है। सत्त्व, असत्त्व, उभय और अनुभय तथा अन्य स्वकीय स्वभावों से जो जानने योग्य नहीं है, वह वस्तु है, ऐसा भी नहीं प्रतीत किया जा सकता है। क्योंकि सम्पूर्ण धर्मों से रहित को भी यदि वस्तु समझ लिया जावेगा तो खरविषाण, वंध्यापुत्र आदि को भी वस्तुपना निर्णीत किये जाने का प्रसंग आयेगा। यदि (बौद्ध) कहे कि धर्म और धर्मी तथा कार्य और कारण एवं आधार और आधेय इत्यादि स्वभावों करके वस्तु अनुपलभ्य (नहीं देखी जाती) है। और स्वकीय स्वलक्षण स्वरूप से वह वस्तु जानने योग्य है ही तो जिस स्वरूप से वस्तु उपलभ्य है, उस प्रकार से वह सत्रूप है और जिन परकीय स्वभावों से वस्तु नहीं जानी जा रही है, उन प्रकारों से वह असत् रूप है, इस प्रकार दोनों बातें सिद्ध होती हैं। इस कारण बहुत दूर भी जाकर विलम्ब से स्याद्वादमत का अनुसरण करना ही पड़ेगा। उस वस्तु के सदात्मक और असदात्मक स्वरूप का खण्डन नहीं कर सकते हैं। अत: किसी भी स्वलक्षण या ज्ञान में सत् और असत् स्वभावों को वस्तुभूत मानना चाहने वाले के आत्मा के उसी प्रकार प्रमाणों से ज्ञात अनन्त स्वभाव भी वस्तुभूत स्वीकार कर लेने चाहिए। (बिना स्वभावों के वस्तु ठहर ही नहीं सकती है।) आत्मा में त्रिलक्षणत्व तथा आत्मा में प्रतिक्षण अनेक स्वभावों का क्रमशः उत्पाद होता है और अनेक स्वभावों का नाश होता रहता है। उन स्वभावों का क्रम से उत्पाद और विनाश होना ही उस आत्मा का किसी अपेक्षा से उत्पाद विनाश होना है। अर्थात् स्वभाव आत्मा से कथञ्चित् अभिन्न है। अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन आत्मा के तदात्मक धर्म सिद्ध हो जाते हैं। आत्मा में सम्यग्दर्शन आदि गुणों के उत्पन्न हो जाने
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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