SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३५० सयोगकेवल्यंतानामष्टानामपि मोहद्वादशकस्य क्षयोपशमादुपशमाद्वा सकलमोहस्य क्षयाद्वा संयतत्वप्रसिद्धेः, अन्यथा संयतासंयतत्वप्रसंगात्, सामान्यतोऽसंयमस्यापि तेषु भावादिति केचित् / तेऽप्येवं पर्यनुयोज्याः। कथं भवतां चतुःप्रत्ययो बंधः सिद्धांतविरुद्धो न भवेत्तत्र तस्य सूत्रितत्वादिति। प्रमादानां कषायेष्वंतर्भावादिति चेत्, सामान्यतो विशेषतो वा तत्र तेषामंतर्भाव: स्यात्? न तावदुत्तरः पक्षो निद्रायाः प्रमादविशेषस्वभावायाः कषायेष्वंतर्भावयितुमशक्यत्वात् तस्या दर्शनावरणविशेषत्वात् / प्रमादसामान्यस्य कषायेष्वंतर्भाव इति चेत् न, अप्रमत्तादीनां सूक्ष्मसांपरायिकांतानां प्रमत्तत्वप्रसंगात् / प्रमादैकदेशस्यैव कषायस्य निद्रायाश तत्र सद्भावात् सर्वप्रमादानामभावान प्रमत्तत्वप्रसक्तिरिति चेत्,तर्हि प्रमादादित्रयस्याचारित्रेतर्भावेऽपि प्रमत्तसंयतादीनामष्टानामसंयतत्वं मा प्रापत् / तथाहि- पंचदशसु प्रमादव्यक्तिषु वर्तमानस्य है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकार से माना जावेगा तो इन आठों में भी संयतासंयत होने का प्रसंग आता है, क्योंकि संयमभाव के साथ आपके कहे अनुसार सामान्यपने से असंयमभाव भी उनमें विद्यमान है। उत्तर - आचार्य कहते हैं कि उनके ऊपर भी इस प्रकार प्रश्न उठाने चाहिए कि आपके यहाँ मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग इस प्रकार बंध के चार कारण मानने पर सिद्धान्तविरोध क्यों नहीं होगा? क्योंकि आपके उस सिद्धान्त में बंध के चार कारणों को सूचित करने वाला वह सूत्र कहा गया है। यदि आप (श्वेताम्बर) प्रमादों का कषायों में अन्तर्भाव करोगे तो उनका सामान्य रूप से अन्तर्भाव करोगे या विशेषरूप से अन्तर्भाव करोगे। इन दोनों पक्षों में दूसरः पक्ष लेना तो ठीक नहीं है। क्योंकि निद्रा भी पंद्रह प्रमादों में से चौदहवीं विशेष प्रमाद रूप है। उसका कषायों में अन्तर्भाव करना शक्य नहीं है। क्योंकि निद्रा का कषायों को उत्पन्न करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह निद्रा तो दर्शनावरणकर्म की एक विशेष प्रकृति है। प्रथम पक्ष के अनुसार प्रमाद सामान्य कषायों में गर्भित है। शंकाकार का इस प्रकार कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सातवें गुणस्थान वाले अप्रमत्त को आदि लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान पर्यंत के मुनियों को प्रमत्तपने का प्रसंग आयेगा। कषाय के उदय के तारतम्य से होने वाले सातवें, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में पंद्रह प्रमादों के ही एकदेशरूप कषायों का और निद्रा का उन चारों गुणस्थानों में उदय विद्यमान है। अत: ये चारों गुणस्थान छठे के समान प्रमत्त हो जावेंगे। यदि कहें कि सातवें आदि चार गुणस्थानों में विकथा, कषाय, इंद्रिय, निद्रा और स्नेह ये सम्पूर्ण प्रमाद तो नहीं हैं। अतः चार गुणस्थानों को प्रमत्तपने का प्रसंग नहीं आता है। तो दिगम्बर जैन भी कह सकते हैं कि प्रमाद, कषाय, योग इन तीनों के सामान्य रूप से अचारित्र में गर्भित हो जाने पर छठे से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक के आठ संयमियों को असंयमीपना प्राप्त नहीं होता आचार्य इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हैं- पन्द्रह प्रमाद विशेषों में विद्यमान प्रमादसामान्य का कषायों में अन्तर्भाव कर लेने पर भी सम्पूर्ण पन्द्रह प्रमाद व्यक्तिरूप से उस कषाय में गर्भित नहीं होते हैं। क्योंकि चार विकथा और पाँच इन्द्रिय ये नौ प्रमाद अप्रमत्त आदि चार गुणस्थानों में विद्यमान नहीं हैं। चार सज्वलन कषाय, स्नेह और निद्रा ये छह प्रमाद ही वहाँ सम्भवते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण प्रमादों के न रहने से उन सातवें आदि चारों को जैसे आप प्रमत्त नहीं मानते हैं, वैसे ही हम भी कहते हैं कि मोहनीय कर्म की बारह प्रकृतियों के
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy