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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३२३ दर्शनज्ञानपरिणामयोरात्मा चारित्रपरिणाममियति चारित्रासहचरितेन रूपेण तयोर्विनाशाच्चारित्रसहचरितेनोत्पादात् / अन्यथा पूर्ववच्चारित्रासहचरितरूपत्वप्रसंगात् / इति कथंचित्पूर्वरूपविनाशस्योत्तरपरिणामोत्पत्त्यविशिष्टत्वात् सत्यमुपादानोपमर्दनेनोपादेयस्य भवनं / न चैवं सकृदर्शनादित्रयस्य संभवो विरुध्यते चारित्रकाले दर्शनज्ञानयोः सर्वथा विनाशाभावात् / एतेन सकृद्दर्शनज्ञानद्वयसंभवोपि क्वचिन्न विरुध्यते इत्युक्तं वेदितव्यं, विशिष्टज्ञानकार्यस्य दर्शनस्य सर्वथा विनाशानुपपत्ते: , कार्यकालमप्राप्नुवतः कारणत्वविरोधात् प्रलीनतमवत्, ततः कार्योत्पत्तेरयोगाद्गत्यंतरासंभवात्। नन्वत्र क्षायिकी दृष्टिानोत्पत्तौ न नश्यति / तदपर्यंतताहानेरित्यसिद्धांतविद्वचः // 75 / / होने से आत्मा ज्ञान दर्शन पर्याय का नाश होने पर चारित्र रूप पर्याय को प्राप्त होता है। यदि चारित्ररहित ज्ञान-दर्शन पर्याय का नाश नहीं होगा तो पूर्व के समान उन ज्ञान-दर्शन में चारित्र के साथ नहीं रहने वाले ज्ञान-दर्शन का प्रसंग आयेगा। अर्थात् चारित्र के उत्पत्ति-काल में यदि असंयम के साथ रहने वाली ज्ञान-दर्शन रूप पर्यायों का नाश नहीं होगा तो संयम के साथ भी असंयम सहित रहने वाले ज्ञान-दर्शन का प्रसंग आयेगा। इस प्रकार 'पूर्व पर्याय के विनाश का उत्तर पर्याय की उत्पत्ति की विशिष्टता होने से कथंचित् पूर्व उपादान के उपमर्दन (विनाश) से ही उपादेय की उत्पत्ति होती है' यह कथन सत्य है (सर्वथा नहीं), अतः चारित्र की उत्पत्ति के काल में सर्वथा ज्ञान दर्शन के विनाश का अभाव होने * से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एक साथ उत्पत्ति भी विरुद्ध नहीं है अर्थात् कथंचित् ये तीनों एक साथ होते हैं, सर्वथा नहीं। उक्त कथन से दर्शन और ज्ञान इन दोनों का एक साथ उत्पन्न होना भी विरुद्ध नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। क्योंकि विशिष्ट ज्ञान है कार्य जिसका ऐसे पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शन के सर्वथा विनाश की अनुपपत्ति है- (सम्यग्दर्शन का सर्वथा विनाश हो जाना युक्तिसिद्ध नहीं है) क्योंकि नष्ट हुए अन्धकार के समान कार्यकाल को प्राप्त नहीं होने वाले के कारणत्व का विरोध है। अर्थात् जो कार्य के समय . सर्वथा नहीं रहता है वह उस कार्य का कारण नहीं हो सकता। इसलिए गत्यन्तर की असंभवता होने से कार्य-उत्पत्ति का ही अयोग है। अर्थात् कारण की विद्यमानता के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। , शंका - इस ज्ञान की उत्पत्ति में अनन्त और अविनाशी होने से क्षायिक सम्यग्दर्शन का नाश ' तो नहीं हो सकता? उत्तर - इस प्रकार कहना जैन सिद्धान्त को नहीं जानने वाले का वचन है।।७५॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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