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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-३०२ स चानुपपन्नः एवात्मनः प्रसिद्धेरिति 'मिथ्याज्ञानपूर्वकमपि सत्यज्ञानं किंचिदभ्युपेयं / तद्वत्सम्यग्दर्शनमपि' इत्यनुपालंभः / क्षायोपशमिकस्य क्षायिकस्य च दर्शनस्य सत्यज्ञानपूर्वकत्वात्सत्यज्ञानं दर्शनादभ्यर्हितमिति च न चोद्यं, प्रथमसम्यग्दर्शनस्यौपशमिकस्य सत्यज्ञानाभावेऽपि भावात्। नैवं किंचित्सम्यग्वेदनं सम्यग्दर्शनाभावे भवति। प्रथमं भवत्येवेति चेत् न, तस्यापि सम्यग्दर्शनसहचारित्वात्। तर्हि प्रथममपि सम्यग्दर्शनं न सम्यग्ज्ञानाभावेऽस्ति तस्य सत्यज्ञानसहचारित्वादिति / न सत्यज्ञानपूर्वकत्वमव्यापि दर्शनस्य, सत्यज्ञानस्य दर्शनपूर्वकत्ववत्, ततः प्रकृतं चोद्यमेवेति चेन। प्रकृष्टदर्शनज्ञानापेक्षया दर्शनस्याभ्यर्हितत्ववचनादुक्तोत्तरत्वात् / न हि क्षायिकं दर्शनं केवलज्ञानपूर्वकं येन तत्कृताभ्यर्हितं स्यात् / अनन्तभवप्रहाणहेतुत्वाद्वा सद्दर्शनस्याभ्यर्हः। विशिष्टज्ञानतः पूर्वभावाच्चास्यास्तु पूर्ववाक् / तथैव ज्ञानशब्दस्य चारित्रात् प्राक् प्रवर्तनम् // 35 // आत्मा की प्रसिद्धि होने से हमारा यह कथन असिद्ध भी नहीं है। अतः मिथ्याज्ञान के अभाव पूर्वक ही किंचित् (कथंचित्) सत्य ज्ञान की उत्पत्ति माननी चाहिए। उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के नाश से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, इसमें कोई उलाहना (दोष) नहीं है। सत्यज्ञानपूर्वक ही क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। अतः सम्यग्दर्शन से सत्यज्ञान अभ्यर्हित (पूजनीय) है ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्रथम औपशमिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति सत्य ज्ञान के अभाव में ही होती है तथा 'सम्यग्दर्शन के अभाव में किंचित् सम्यग्वेदन होता है' ऐसा भी नहीं है। 'सम्यग्दर्शन के पूर्व भी किंचित् सम्यग्वेदन होता है' ऐसा भी नहीं है, क्योंकि उसमें भी सम्यग्दर्शन का सहचारित्व है अर्थात् प्रथम सम्यग् वेदन में भी सम्यग्दर्शन का सहचारीपना है। प्रश्न - सत्यज्ञान का सहचर होने से प्रथम सम्यग्दर्शन तो सत्यज्ञान के अभाव में नहीं हो सकता' अतः सत्यज्ञान के सम्यग्दर्शन पूर्वकत्व के समान दर्शन के भी सत्यज्ञानपूर्वकत्व अव्यापी नहीं है (जैसे सम्यग्ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है) उसी प्रकार प्रथम दर्शन (उपशम सम्यग्दर्शन) सम्यग्ज्ञान पूर्वक होता है इसलिए प्रकृत शंका तो बनी रहती है? उत्तर - ऐसी शंका करना उचित नहीं है- क्योंकि इस सूत्र में प्रकृष्ट दर्शन और ज्ञान की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के पूज्यपना कहा है, ऐसा पूर्व में भी कथन कर चुके हैं। अथवा, क्षायिकदर्शन केवलज्ञान पूर्वक नहीं होता है। यदि केवलज्ञान पूर्वक होता तो क्षायिक दर्शन से केवलज्ञान को पूज्य कहकर ज्ञान का पूर्व निपात करते। अथवा, अनन्त संसार के नाश का कारण होने से सम्यग्दर्शन पूज्य है इसलिए आचार्य ने सूत्र में सम्यग्दर्शन शब्द का पूर्व में निपात किया है। अथवा, “विशिष्ट ज्ञान से पहले सम्यग्दर्शन होने से ज्ञान के पूर्व सम्यग्दर्शन और विशिष्ट चारित्र के पूर्व ज्ञान होने से चारित्र के पूर्व ज्ञान का प्रयोग किया है" // 35 //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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