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________________ तत्वार्थश्लोकवार्तिक - 233 स्वप्नदर्शिमे हि यथा सुप्तप्रबुद्धस्य सुखानुभवनादिस्मरणाद्विज्ञानस्वभावत्वं विभावयंति तथा सुषुप्तस्यापि सुखमतिसुषुप्तोऽहमिति प्रत्ययात्। कथमन्यथा सुषुप्तौ पुंसचेतनत्वमपि सिद्धयेत् प्राणादिदर्शनादिति चेत् यथा चैतन्यसंसिद्धिः सुषुप्तावपि देहिनः। प्राणादिदर्शनात्तद्वबोधादिः किं न सिद्ध्यति // 236 // जाग्रतः सति चैतन्ये यथा प्राणादिवृत्तयः। तथैव सति विज्ञाने दृष्टास्ताः बाधवर्जिताः // 237 / / वीरणादौ चैतन्याभावे प्राणादिवृत्तीनामभावनिशयानिमितव्यतिरेकाभ्यस्ताभ्यः सुषुप्तौ चैतन्यसिद्धिरिति चेत्। स्वप्नदर्शी पुरुष के सोकर उठने के पीछे जागृत दशा में होने वाले सुख के अनुभव आदि का स्मरण करने से स्वप्नदर्शी आत्मा के विज्ञान, सुख स्वभावत्व का जैसे अनुमान किया जाता है; उसी प्रकार स्वप्न रहित गाढ़ निद्रा में सुप्त मनुष्य के भी 'मैं बहुत देर तक सुखपूर्वक सोया था।' इस प्रकार का ज्ञान होता है (प्रतीति होती है)। अत: सुप्त अवस्था में भी आत्मा के ज्ञान और सुख की अनुमान से सिद्धि होती है। अन्यथा (यदि सुप्तावस्था में ज्ञान और सुख को स्वीकार नहीं किया जाता है तो) सुप्त अवस्था में आत्मा के चेतनत्व की सिद्धि कैसे हो सकती है? / . कपिल कहता है कि सुप्तावस्था में वायु चलना (श्वासोच्छ्वास का चलना), नाड़ी चलना आदि प्राण दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिये सुप्तावस्था में चेतनत्व की सिद्धि होती है। जैनाचार्य कहते हैं कि जैसे सुप्तावस्था में आत्मा के श्वासोच्छ्वास आदि प्राणों के दृष्टिगोचर होने से चेतनत्व की सिद्धि होती है, उसी प्रकार सुप्तावस्था में आत्मा के ज्ञान, सुख आदि की सिद्धि क्यों नहीं होती है॥२३६॥ .. . किंच- जैसे जागृत अवस्था में आत्मा के चैतन्य होने पर श्वासोच्छ्वास का चलना, नेत्रों का उन्मेष-निमेष आदि प्राणों की वृत्तियों (प्राणों की क्रिया) देखी जाती है, उसी प्रकार जागृत अवस्था में आत्मा के विज्ञान के होने पर ही प्राणादिवृत्तियाँ देखी जाती हैं। इन प्रवृत्तियों के होने में कोई बाधक नहीं है। वस्तुतः चेतनपने और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं है अतः चेतना की सिद्धि से ज्ञान की सिद्धि होती ही है।।२३७॥ सांख्य कहता है कि वीरण (तन्तुओं को स्वच्छ करने के लिए खस की बनी हुई कूँची) तुरी, वेम, आदि में चैतन्य के अभाव में श्वासोच्छ्वास आदि प्राणों की वृत्तियों का अभाव निश्चित है। इसलिए निश्चित प्राणादि वृत्तियों के व्यतिरेक से सुप्तावस्था में चैतन्य की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् जहाँ-जहाँ चैतन्य नहीं है, वहाँ-वहाँ श्वासोच्छ्रास नहीं है- जैसे वीरण, वेम, तुरी, पुस्तकादि। इनमें श्वासोछ्रास नहीं है, इसलिये ये चैतन्य नहीं हैं। और सुप्तावस्था में श्वासोच्छ्रास आदि प्राणों की वृत्तियाँ
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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