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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 225 कथं चात्मा स्वसंवेद्यः संवित्ति!पगम्यते। येनोपयोगरूपोऽयं सर्वेषां नाविगानतः // 225 // कुतः पुनरुपयोगात्मा नरः सिद्ध इति चेत् कथंचिदुपयोगात्मा पुमानध्यक्ष एव नः। प्रतिक्षणविवर्तादिरूपेणास्य परोक्षता // 226 // स्वार्थाकारव्यवसायरूपेणार्थालोचनमात्ररूपेण च ज्ञानदर्शनोपयोगात्मकः पुमान् प्रत्यक्ष एव तथा स्वसंविदितत्वात् / प्रतिक्षणपरिणामेन . आत्मा स्वयं स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जानने योग्य है। यह प्रमिति स्वीकार क्यों नहीं की जाती है? जिससे कि सम्पूर्ण वादी-प्रतिवादियों को निर्दोष रूप से यह आत्मा ज्ञानोपयोग स्वरूप सिद्ध न हो सके। अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से आत्मा उपयोग स्वरूप सिद्ध हो जाता है॥२२५॥ आत्मा उपयोगात्मक है शंका- आत्मा उपयोगात्मक है, ऐसा सिद्ध कैसे होता है? .. . उत्तर- आचार्य कहते हैं. हमारे (स्याद्वाद) सिद्धान्त में आत्मा कथंचित् सर्वांग रूप से उपयोगात्मक है। वह उपयोगात्मक आत्मा स्वयं प्रत्यक्ष ही है तथा प्रतिक्षण होने वाली सूक्ष्म अर्थ पर्यायों की अपेक्षा आत्मा के परोक्षता भी है। अर्थात् अस्तित्व-वस्तुत्व गुणों का आधारभूत आत्मा कथंचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् प्रत्येक क्षण में होने वाली स्वभाव-विभाव आदि पर्यायों की अपेक्षा आत्मा परोक्ष रूप भी है। अंश अंशी में अभेद होने के कारण कथंचित् उपयोगात्मक आत्मा प्रत्यक्ष है और कथंचित् अप्रत्यक्ष है, ऐसा जानना चाहिए // 226 // अंतरंग (अपनी आत्मा) और बहिरंग पदार्थों का निश्चय करने वाले ज्ञान से आत्मा ज्ञानोपयोगात्मक है और पदार्थों का सत्तारूप अवलोकन करने वाले दर्शन की अपेक्षा आत्मा दर्शनोपयोगात्मक है। ऐसा ज्ञान-दर्शन लक्षणवाला आत्मा स्वसंवेदन ज्ञान का विषय होने से प्रत्यक्ष है। अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के कारण आत्मा सभी जीवित आत्माओं के अनुभव में आ रही है 'जैसे मैं खा रहा हूँ' इसमें प्रत्यक्ष मैं (आत्मा) का अनुभव हो रहा है। ..... आत्मा अनुमेय है प्रत्येक समय में होने वाली पर्यायों के द्वारा आत्मा अनुमेय (अनुमान का विषय) है। क्योंकि अनुमान के बिना एक समय में होने वाले विशेष परिणामों को पृथक् -पृथक् जानना शक्य नहीं है। ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से युक्त आत्मा है, यह भी अनुमान से जाना जाता है। क्योंकि प्रत्येक आत्मा में जानने-देखने की शक्ति में भेद प्रतीत होता है। अतः आत्मा क्षयोपशम विशेष से युक्त है, ऐसा अनुमान किया जाता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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