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________________ +16+ घर आकर उन्होंने स्तोत्र के अर्थ का चिन्तन किया। अहो ! जिनेन्द्रमत में प्रमाण पद्धति समीचीन है- परन्तु अनुमान का लक्षण नहीं है। अनुमान लक्षण को जानने के लिए वे चिन्तासागर में डूबकर निद्रादेवी की गोद में सो गये। रात्रि में पद्मावती देवी ने स्वप्न में कहा- "चिन्ता मत करो, प्रातःकाल पार्श्वनाथ भगवान के जिनमन्दिर जाकर देखना, उस मन्दिर में पार्श्वनाथ भगवान के फणामण्डल पर अनुमान का लक्षण लिखा हुआ मिलेगा।" दूसरे दिन प्रातःकाल विद्वान् पात्रकेसरी पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में गये और तीन लोक के नाथ / का अवलोकन करके फणामण्डल को देखा तो उस पर लिखा था अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं। नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं। जहाँ अन्यथा अनुपपन्नत्व है वहाँ अनुमान के तीन अंग से क्या प्रयोजन है और जहाँ अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है, वहाँ अनुमान के तीन अंग से क्या प्रयोजन है ? देवी के कर-कमल से लिखे हुए श्लोक को पढ़कर और अनुमान का यह लक्षण 'अन्यथानुपपन्नत्वरूपव्याप्तिज्ञानमेवानवद्यानुमानं अन्यथानुपपन्नत्व ही अनुमान का निर्दोष लक्षण है' पढ़कर पात्रकेसरी के हृदय में स्थित मिथ्या अन्धकार विलीन हो गया और सम्यग्दर्शन की ज्योति जगमगा उठी। उनको जिनधर्म में दृढ़ आस्था उत्पन्न हुई। वे दिगम्बर मुनि हो गये। इस प्रकार ‘आप्त परीक्षा' एवं 'पत्र परीक्षा' की प्रस्तावना में लिखा है और पात्रकेसरी और विद्यानन्द को एक ही घोषित किया है। विद्यानन्द आचार्य के निवास-स्थान के सम्बन्ध में उपरिलिखित कथानक से जाना जाता है कि वे उत्तरप्रान्तवासी थे परन्तु इनके कार्य और साधना की भूमि कर्नाटक है, ऐसा पं. गजाधरलाल जी ने लिखा है। पं. गजाधरलालजी के कथन और कर्नाटक के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि विद्यानन्द और पात्रकेसरी दोनों एक हैं परन्तु पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार और दरबारीलाल जी कोठिया के कथन से पात्रकेसरी और विद्यानन्द दोनों पृथक्-पृथक् हैं। 2. शिलालेख 1. नजराजपट्टणमहीपतिनंजपरिषदि श्रीमद्विद्यानंदिस्वामिना नंदनमल्लिभट्टाभिधो विदग्धो विहितानवद्यविवादमर्यादया विजिग्ये। 2. हृद्यानवघयद्यैकप्रभावेण श्रीरातवेंद्रनरपतिसभायां श्रीविद्यानंदिविभुना निखिलश्रोतारो विस्मयपदमानीताः। 3. शल्वमल्लिभूपतिसंसदि स्वीयामलवचनपाटवपरभूतवादिविदुषः क्षमतेस्म विद्यानंदिप्रभुः। 4. सलूवेदपृथ्वीपतिपरिषदिनैकविधपरिवादिमंडललपनविनिर्गतसिद्धांतसंदोहं सिद्धाताभासतायाऽनृती कृत्यहिमतं प्रभावितं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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