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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 191 स्यान्मतं / आत्मानो ज्ञानमस्मास्विति प्रतीयंति आत्मत्वात् ये तु न तथा ते नात्मानो यथा खादयः। आत्मानश्तेऽहंप्रत्ययग्राह्यास्तस्मात्तथेत्यात्मत्वमेव खादिभ्यो विशेषमात्मानं साधयति पृथिवीत्वादिवत् / पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादियोगाद्धि पृथिव्यादयस्तद्वदात्मत्वयोगादात्मान इति / तदयुक्तम् / आत्मत्वादिजातीनामपि जातिमदनात्मकत्वे तत्समवायनियमासिद्धेः / प्रत्ययविशेषात्तत्सिद्धिरिति चेत्, स एव विचारयितुमारब्धः। परस्परमत्यंतभेदाविशेषेऽपि यदि नैयायिक का यह कथन है कि “समवाय सम्बन्ध से हमारे में ज्ञान है" ऐसी आत्मा को प्रतीति होती है, क्योंकि वे आत्मा हैं। जो * पदार्थ “मेरे में ज्ञान है"- ऐसी प्रतीति नहीं करते हैं- अथवा 'हमारे में ज्ञान है' ऐसी प्रतीति जिनको नहीं होती है, वे आत्मा नहीं हैं जैसे आकाश आदि। “मैं मैं" इस प्रत्यय (ज्ञान) के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, अतः “मेरे में ज्ञान है" आत्मा ऐसी दृढ़ प्रतीति कर लेता है। अत: यह 'अहं' "मैं मैं" प्रत्यय आकाश आदि से आत्मा की विशेषता सिद्ध कर देता हैं। जैसे पृथ्वीत्व जलत्व आदि स्वकीय जाति के द्वारा पृथ्वी आदि को आकाश आदि से भिन्न सिद्ध कर देता है। जिस प्रकार पृथ्वीत्वादि जाति के योग (सम्बन्ध) से पृथ्वी आदि में पृथ्वीत्व आदि है, उसी प्रकार आत्मत्व के योग से आत्मतत्त्व भी पृथक् सिद्ध होता है। अर्थात् पृथ्वीत्व के सम्बन्ध से पृथ्वी, जलत्व के सम्बन्ध से जलत्व आदि पृथक्-पृथक् द्रव्य सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार आत्मत्व के समवाय सम्बन्ध से आत्मतत्त्व स्वतंत्र सिद्ध होता है। आत्मत्व के समवाय से आत्मत्व है, इस प्रकार कहने वाले नैयायिक के प्रति जैनाचार्य कहते हैं किनैयायिक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि आत्मत्व, पृथ्वीत्व आदि जाति का आत्मा, पृथ्वी आदि जातिमान के साथ ही समवाय सम्बन्ध होता है, ऐसे समवाय सम्बन्ध के नियम की असिद्धि है क्योंकि जातिसम्बन्ध के पूर्व सर्व अनात्मक हैं। .. अर्थात् अपनी-अपनी जाति के साथ जब द्रव्य का तदात्मक सम्बन्ध नहीं है, स्वकीय जाति के सम्बन्ध से सर्व द्रव्य समान हैं तो ऐसा कौन सा नियम है जिससे आत्मत्व जाति का समवाय सम्बन्ध आत्मा के साथ ही हो, आकाश आदि के साथ नहीं। उसी प्रकार पृथ्वीत्व, जलत्व आदि का समवाय पृथ्वी आदि के साथ ही हो अन्य के साथ नहीं। अतः ज्ञान और ज्ञानवान के समान जाति और जातिमान की व्यवस्था भी नहीं हो सकती (जब तक पृथ्वी और पृथ्वीत्व का और आत्मा व आत्मत्व का तादात्म्यरूप एकीभाव नहीं माना जाता)। ... नैयायिक : आत्मा में ही आत्मत्व जाति का प्रत्यय (ज्ञान) होता है, जैसे जलादि में जलत्व आदि का प्रत्यय होता है। इसलिए इस प्रत्यय के कारण आत्मादि में आत्मत्व आदि के समवाय सम्बन्ध की सिद्धि होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं- कि वही विचार करने के लिए तो प्रकरण आरंभ किया है। अर्थात् आत्मा में ही आत्मत्व जाति के रहने का विशेष ज्ञान किस कारण से होता है? इसी का विचार किया जा रहा है कि जाति और जाति वाले में परस्पर अत्यन्त भेद की अविशेषता होने पर भी आत्मत्व जाति ‘आत्मा में ही रहती है' इस ज्ञानविशेष को उत्पन्न करती है, और पृथ्वी, जल आदि में आत्मत्व के रहने का ज्ञान नहीं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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