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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 187 संतानैक्यादुपादानोपादेयताया नियमे परस्पराश्रयणात्सैव माभूदित्यपि न धीरचेष्टितं, पूर्वापरविदोस्तत्परिच्छेद्ययोर्वा नियमेनोपादानोपादेयतायाः समीक्षणात् / तदन्यथानुपपत्त्या तद्व्याप्येकद्रव्यस्थितेरिति तद्विषयं प्रत्यभिज्ञानं तत्परिच्छेदकमित्युपसंहरति तस्मात्स्वावृतिविश्लेषविशेषवशवर्तिनः। पुंसः प्रवर्तते स्वार्थकत्वज्ञानमिति स्थितम् // 191 // संतानवासनाभेदनियमस्तु क्व लभ्यते। नैरात्म्यवादिभिर्न स्यायेनात्मद्रव्यनिर्णयः // 192 // तस्मान्न द्रव्यनैरात्म्यवादिनां संतानविशेषाद्वासनाविशेषाद्वा प्रत्यभिज्ञानप्रवृत्तिस्तनियमस्य लब्धुमशक्तेः। किं तर्हि? पुरुषादेवोपादानकारणात् स एवाहं तदेवेदमिति वा स्वार्थकत्वपरिच्छेदकं (बौद्ध) संतान की एकता से उपादान उपादेय भाव का नियम मानने पर अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। अतः शुद्ध संवेदनाद्वैतवादी उपादान-उपादेय भाव नहीं मानते हैं। इस प्रकार कहने वाले बौद्ध की भी धीर वीर पुरुषों की सी चेष्टा नहीं है। क्योंकि पूर्वोत्तर ज्ञान में तथा ज्ञान के द्वारा जानने योग्य वस्तु में नियम से उपादानउपादेय भाव दृष्टिगोचर हो रहा है। अन्यथा एक द्रव्य के साथ तादात्म्य भाव के बिना कार्य-कारण भाव नहीं हो सकता (उपादान उपादेय भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती)। अन्यथा अनुपपत्ति से सिद्ध होता है कि पूर्वोत्तर कालवर्ती अनेक ज्ञानों में व्यापक रूप से रहने वाला एक अन्वित द्रव्य ही प्रत्यभिज्ञान का विषय है। उस एक अखण्ड द्रव्य को विषय करने वाला प्रत्यभिज्ञान उस द्रव्य को जान लेता है। आचार्य उक्त प्रकरण का उपसंहार करते हैं। ___इसलिए स्वकीय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष के आधीन रहने वाले, स्व और एकत्व अर्थ को विषय करने वाले पुरुष की प्रवृत्ति हो रही है। इस प्रकार निश्चित है। . अखण्ड आत्मतत्त्व को नहीं मानने वाले बौद्धों के भिन्न-भिन्न सन्तानों का नियम और भिन्न-भिन्न वासनाओं के भेद का नियम कैसे प्राप्त हो सकता है। इससे नैरात्म्यवादी बौद्धों के आत्मद्रव्य का निर्णय नहीं हो पाता। अर्थात् अखण्ड एक आत्मद्रव्य सिद्ध है। अखण्ड आत्मद्रव्य के बिना बौद्ध दर्शन में संतान का नियम भी सिद्ध नहीं होता है।।१९१-१९२॥ . इसलिए अखण्डित अन्वित आत्मद्रव्य को नहीं मानने वाले सौगत मत में संतान विशेष से वा वासना विशेष से पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले एकत्व को विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि यह यज्ञदत्त की संतान है या यह यज्ञदत्त में ही ज्ञान कराने वाली वासना है'- 'यह वासना भी पूर्व की वासनाओं से ही उत्पन्न हुई है' इस प्रकार के नियम की उपलब्धि करना अशक्य है। अर्थात् नित्य आत्मद्रव्य को स्वीकार किये बिना वासना आदि की भी सिद्धि नहीं होती है। शंका- प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति कैसे होती है? समाधान- पूर्वोत्तर पर्यायों के उपादान कारणभूत एक अखण्ड आत्मद्रव्य के कारण ही 'वह ही मैं हूँ' 'वही यह है' इस प्रकार स्व (आत्मा) और बहिरंग अर्थों के एकत्व का परिच्छेदक (जानने वाला) प्रत्यभिज्ञान प्रवृत्त होता है। उक्त सम्पूर्ण अवस्थायें अपने ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष से आत्मा में व्यवस्थित बन रही
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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