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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१८४ कथं चाव्यभिचारेण कार्यकारणरूपता। केषांचिदेव युज्येत क्षणानां भेदवादिनः // 185 // कालदेशभावप्रत्यासत्तेः कस्यचित्के नचिद्भावाद्भावेऽपि भेदैकांतवादिनामव्यभिचारी कार्यकारणभावो नाम / तथाहि व्यभिचारान्न कर दिया। अत: अद्वैत की सिद्धि नहीं होती। अद्वैत को सिद्ध करना व्यर्थ का बकवाद है। द्रव्य की पूर्वोत्तर पर्यायों में सर्वथा भेद मानने वाले के वास्तविक कार्य-कारण भाव का होना असंभव है। अर्थात् जब अंकुर और बीज में सर्वथा भेद माना जाता है तो 'बीज कारण है और अंकुर कार्य है' यह कैसे कहा जा सकता है। इसी प्रकार किसी एक विवक्षित पर्याय में निर्दोष कार्य-कारण भाव नहीं हो सकता है, इसी बात को आचार्यदेव निवेदन करते हैं। पूर्वोत्तर काल में होने वाली स्वलक्षण-पर्यायों में सर्वथा भेद मानने वाले बौद्ध के दर्शन में किन्हीं विशिष्ट पर्यायों का ही परस्पर में निर्दोष कार्य-कारण भाव कैसे घटित हो सकता है? // 185 // किसी पर्याय में पूर्ववर्ती पर्याय से उत्तरवर्ती पर्याय का अव्यवहित उत्तरकाल में होना रूप कालिक सम्बन्ध है, जो कार्य और कारण के लिए उपयुक्त है। किन्हीं पूर्वोत्तर पर्यायों का एकदेश में रहना रूप दैशिक सम्बन्ध है। तथा सुख, दु:ख आदिक की समानता होने से किसी पर्याय में भावरूप सम्बन्ध भी है। इन तीनों सम्बन्धों का व्यभिचार भी देखा जाता है। . उस काल, देश और भाव प्रत्यासत्ति के कारण किसी पर्याय का किसी के साथ किसी काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा सद्भाव होने पर भी व्यभिचार होने से भेदएकान्तवादियों के पूर्वोत्तर पर्यायों में निर्दोष कार्य-कारणभाव नहीं हो सकता। अर्थात् जब पर्यायों का आधारभूत अखण्ड द्रव्य नहीं है वा पूर्वोत्तर काल में होने वाली पर्यायों में द्रव्य प्रत्यासत्ति (अखण्ड द्रव्य का सम्बन्ध) नहीं है तो पूर्वोत्तर पर्यायों में निर्दोष कार्य-कारण भाव कैसे हो सकता है? सो ही कहते हैं यदि केवल काल के अव्यवहित होने से पूर्वोत्तर पर्याय में कार्यकारण भाव मानेंगे तो सर्व पदार्थों के भी कार्य-कारण भाव होने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् घट के पूर्व समय का परिणाम उसके अनन्तर उत्तरकाल में होने वाले ज्ञान, सुख आदि सभी का उपादान कारण बन जायेगा- क्योंकि जिस समय घट पर्याय उत्पन्न हो रही है उसी क्षण में ज्ञानादिक भी उत्पन्न हो रहे हैं, उनमें काल प्रत्यासत्ति है। ___ यदि देशप्रत्यासत्ति के कारण इनमें कार्य-कारण भाव मानोगे तो एक देश में स्थित विज्ञान रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार इन पाँच स्कन्धों में भी परस्पर कार्य-कारण (उपादान उपादेय) भाव क्यों नहीं होगा? क्योंकि विज्ञान आदि पाँच स्कन्धों में क्षेत्रभेद नहीं है तथा एक ही आकाश प्रदेश में छहों द्रव्य रहते हैं- उनमें भी परस्पर उपादान-उपादेय भाव हो जायेगा।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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