SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 92 पुरुषो न ज्ञानस्वभाव इति न शक्यव्यवस्थं / तथाहि; यद्यज्ञानस्वभाव: स्यात्कपिलो नोपदेशकृत्। सुषुप्तवत्प्रधानं वाऽचेतनत्वाद् घटादिवत् // 64 // यथैव हि सुषुप्तवत्तत्त्वज्ञानरहितः कपिलोऽन्यो वा नोपदेशकारी परस्य घटते तथा प्रधानमपि स्वयमचेतनत्वात्कुटादिवत्। तत्त्वज्ञानसंसर्गाद्योगी ज्ञानस्वभाव इति चेत्; ज्ञानसंसर्गतोऽप्येष नैव ज्ञानस्वभावकः / व्योमवत्तद्विशेषस्य सर्वथानुपपत्तितः // 65 // यस्य सर्वथा निरतिशयः पुरुषस्तस्य ज्ञानसंसर्गादपि न ज्ञानस्वभावोऽसौ गगनवत् / कथमन्यथा चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति न विरुध्यते? ततो न कपिलो मोक्षमार्गस्य प्रणेता येन संस्तुत्यः स्यात्। (सांख्य के अनुसार) आत्मा ज्ञानस्वभावी नहीं है, ऐसा कहना भी शक्य व्यवस्था (ठीक) नहीं है, उसी को कहते हैं यदि कपिल (ऋषि) अज्ञान स्वभाव वाला है तो गाढ निद्रा में सुप्त मानव के समान तत्त्व का उपदेश करने वाला नहीं हो सकता। तथा कपिल की आत्मा से सम्बन्ध प्राप्त प्रकृति भी घटादि के समान अचेतन होने से तत्त्वों का उपदेश देने वाली नहीं हो सकती।।६४॥ जिस प्रकार गाढ़ निद्रा में सुप्त मानव के समान तत्त्वज्ञान और वक्तृत्वकला से रहित होने से कपिल वा अन्य कोई ईश्वरभट्ट आदि मोक्ष का उपदेश देने वाले (सांख्य मत में) घटित नहीं होते, उसी प्रकार घट आदि के समान स्वयं अचेतन होने से प्रधान के भी मोक्षमार्ग का उपदेश देना घटित नहीं होता है। यदि कापिल यों कहे कि तत्त्वज्ञान के संसर्ग से योगी ज्ञानस्वभाव वाला होता है, तो ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं (आपका माना हुआ कूटस्थ आत्मा) ज्ञान के संसर्ग से भी ज्ञानस्वभाव वाला नहीं हो सकता है। जैसे प्रकृति से निर्मित ज्ञान के मात्र संसर्ग से आकाश ज्ञानी नहीं हो जाता है। कपिल के मत में प्रकृति व्यापक है, उसका सम्बन्ध जैसा आत्मा के साथ है वैसा आकाश के साथ है। इन दोनों में विशेष की सर्वथा अनुपपत्ति है। अतः जैसे ज्ञान के संसर्ग मात्र से आकाश ज्ञानी नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञान के संसर्ग से आत्मा भी ज्ञानी नहीं हो सकता // 65 // जिस सांख्य के मत में आत्मा सर्वथा निरतिशय माना गया है अर्थात् वह कूटस्थ नित्य है, उसके मत में ज्ञान के संसर्ग से आत्मा ज्ञानस्वभाव वाला नहीं हो सकता। जैसे ज्ञान के संसर्ग से जड़ स्वरूप आकाश ज्ञानी नहीं हो सकता है। यदि आत्मा को ज्ञानस्वरूप मान लोगे तो 'पुरुष का स्वरूप चैतन्य है' यह विरुद्ध कैसे नहीं होगा। इसलिए कपिल मोक्षमार्ग का प्रणेता नहीं है अत: वह स्तुति करने योग्य नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy