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________________ है वह शुद्धोपयोगी है। इस जीव के उपयोग को शुदोपयोग कहते हैं। इस शुद्धोपयोग के प्रभाव से आत्मा का पर द्रव्य के साथ संयोग छूट जाता है। इसलिए ही श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने शुद्धोपयोगी होने की भावना प्रकट की है। ध्यान के फल - आगे इन्हीं तीनों प्रकार के ध्यानों के फल का निर्देश करते हुए लिखा है - 'मनुष्य शुभध्यान के फल से उत्पन्न हुई स्वर्ग की लक्ष्मी को भोगते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त होते हैं। दुर्ध्यान से जीवों की दुर्गति का कारणभूत अशुभकर्म होता है, जो कि बड़े कष्ट से भी कभी बिना फल दिये क्षय नहीं होता। जीवों के शुद्धोपयोग का फल समस्त दु:खों से रहित, स्वभाव से उत्पन्न और अविनाशी ज्ञानरूपी राज्य का पाना है अर्थात् शुद्धोपयोग का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी तीनों (उपयोग रूप) ध्यानों के फल को दर्शाते हुए इसी भाव को प्रकट किया है। यथा - 'धर्म अर्थात् चारित्र गुणरूप जिसका आत्मा परिणत हो रहा है ऐसा जीव यदि शुद्धोपयोग से सहित है तो निर्वाण सुख को पाता है और यदि शुभोपयोग से सहित है तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है। अशुभोपयोग रूप परिणमन करने से जीव खोटा मनुष्य, तिर्यश्च और नारकी होकर हजारों दुःखों से दु:खी होता हुआ सदा संसार में अत्यन्त भ्रमण करता है। __ शुद्धोपयोग से निष्पन्न अरहन्त, सिद्ध भगवान् को अतिशय रूप सबसे अधिक, आत्मा से उत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अनन्तरित सुख प्राप्त होता है।' आनन्द का स्रोत, ज्ञान का भवन स्वयं आत्म-पुरुष ही एक मात्र साध्य है और आप अपना साधन भी है और जब त्रिपुटी का वेध हो जाता है, साधक, साध्य और साधन का भेद समाप्त हो जाता है, तीनों अभेद एक बिन्दु में ही जैसे समाए हों, ऐसा होता है तब वह पुरुष केवल पुरुष ही है। तब वह न ध्येय है, न ध्याता, न ध्यान, वह आप ही आप है, शक्ति से शक्तिमान अभिन्न व शक्तिमान से शक्ति अभिन्न / तब सब सौन्दर्य, सब सत्य उस . निर्विकल्प भावातीत में ही समाए रह जाते हैं। 'जीवात्मा परिणाम स्वभावी होने से जब शुभ व अशुभ भाव रूप परिणमन करता 1. ज्ञानार्णव, 3/32-5. 2. प्रवचनसार, 1/11-3 58
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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