SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 11/46, 12/25, 57, 13/8, 16/5, 18/6, 9, 107, 143, 2 1/38, 24/25, 26/107-8, 110-127,34/31, 35/58,82-3,89-90, 92 / इन्द्रवजा - जिसके प्रत्येक चरण में दो तगण तथा दो गुरु हों तो उसे इन्द्रवज्रा समझना चाहिए।' ज्ञानार्णव के निम्न छन्दों में इसके लक्षण प्राप्त होते हैं-19/12,24/ 29, 33 / उपजाति - जिस छन्द का एक चरण इन्द्रवज्रा और एक चरण उपेन्द्रवज्रा का होता है उसे उपजाति छन्द कहा जाता है। यथा - 4/7, 24/16-18, 24, 26, 28, 31, 32, 39, 28/16, 32/19, 37/4, 38/14, 16, 39/391 उपेन्द्रवज्रा - जिसके प्रत्येक पाद में जगण, तगण और जगण के साथ दो गुरु हों वह उपेन्द्रवज्रा वृत्त कहा जाता है / निम्न छन्दों में इसके लक्षण मौजूद हैं - 18/1, 24/5, 32/20, 27, 37/51 इन छन्दों के अतिरिक्त जो छन्द हैं वे अनुष्टुप् छन्द हैं। प्राकृत में गाहा और अपभ्रंश में दोहा का जो महत्त्व है वही महत्त्व संस्कृत में अनुष्टुप् छन्द का है। इसमें अल्पाक्षरों में किसी विषय का निरूपण कर पाना आसान होता है। शार्दूलविक्रीड़ित या मन्दाक्रान्ता जैसे लम्बे छन्दों की अपेक्षा इन छन्दों के अधिक प्रयोग होने का कारण भी . यही है कि इसकी रचना सौकर्य एवं प्रभावपूर्ण भी होती है। विशिष्ट सम्प्रेषणीयता होने पर ही विशिष्ट छन्दों का प्रयोग किया जाता है तो उनमें भी सुन्दरता परिलक्षित होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने जिस मञ्जुल एवं माधुर्य शैली के साथ विविध छन्दों का स्वाभाविक प्रयोग किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। विषय की दुरूहता होने पर भी उन्हें प्रयोग में किसी भी प्रकार की मुश्किल हुई हो, ऐसा नहीं दिखाई देता। सम्पूर्ण ग्रन्थ की भाषा प्रसादगुणोपेत है। समासान्त पदों के किञ्चित् प्रयोग होने पर भी वे न तो कर्णकटु हैं और न उनमें अर्थावबोध कर पाने में कठिनाई का अनुभव होता है। उसे पाठ के साथ ही हृदयंगम करने में कुछ भी जटिलता नहीं होती। जहाँ पद्य को छोड़कर गद्य का प्रयोग ग्रन्थकर्ता ने किया है, वहाँ भी विवरणात्मक विषय होने से सरल एवं सहजता प्रकट होती है। इससे ग्रन्थकर्ता के गद्य एवं पद्य दोनों में लिख सकने की सामर्थ्य का तो पता मिलता ही है, साथ ही कुशल शब्दशिल्पी होने की भी पुष्टि होती है। इसीलिए उन्होंने जहाँ जैसा उचित लगा, वहाँ वैसी गद्य या पद्य शैली को अपनाया है। आचार्य शुभचन्द्र की लेखनी के विषय में डॉ. दर्शनलता के विचार मननीय हैं - 'आचार्य शुभचन्द्र की लेखनी यदि वे उसका पर्याप्त उपयोग करते तो उपमिति भवप्रपंचक्रथा के रचनाकार सिद्धर्षि की लेखनी से टक्कर ले सकती थी। लम्बे-लम्बे 1. वही, 3/28. 2. वही, 3/30. 3. वही, 3/29. 4. ज्ञानार्णव एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 117. 35
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy