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________________ योगप्रदीप नाम होने में किञ्चिदपि विस्मयता का कारण नहीं जान पड़ता। किन्तु जैसा कि उपर्युक्त पुष्पिका वाक्य में आचार्य शुभचन्द्र के नाम का स्पष्टोल्लेख है, जो इन पुष्पिकावाक्यों का मूल लेखक कृत होने में किञ्चित् संदेह पैदा करता है। और इसकी पुष्टि के लिए ज्ञानार्णव के ही.टीकाकार द्वारा प्रयुक्त अपने पुष्पिका वाक्यों को लिया जा सकता है। फिर भी इन पुष्पिका वाक्यों का मूल ग्रन्थ से कितना सम्बन्ध है, इस विषय में निर्णयात्मक कुछ कह पाना अभी भी गहन अनुसन्धान की अपेक्षा रखता है। कारण, पुष्पिका वाक्यों के अनुरूप ग्रन्थ का विषयविभाजन मूलक कृत होने में अभी भी संदेह को जन्म देता है। पं. नाथूराम प्रेमी के अभिप्रायानुसार ज्ञानार्णव का एक अन्य नाम योगार्णव भी है। इसमें योगीश्वरों के आचरण करने एवं जानने योग्य सम्पूर्ण जैन सिद्धान्त का रहस्य भरा हुआ है। चूंकि इसमें योग का वर्णन अथाह एवं सूक्ष्म रीत्या हुआ है। इसलिए इसे योगार्णव कहना भी सार्थक ही है। इस प्रकार इस ग्रन्थ के कम-से-कम पाँच नाम हो सकते हैं। इनमें ध्यानतन्त्र और ध्यानशास्त्र तो सार्थक नाम हो ही सकते थे। किन्तु ग्रन्थ कर्ता के द्वारा इन्हें प्रमुखरूपेण स्वीकार न करने का अन्यतम कारण यह भी हो सकता है कि यद्यपि ध्यान भी साधना का एक अवयव मात्र है और उसे बिना ज्ञान के प्राप्त नहीं किया जा सकता। ध्यान में भी वह ध्यान जो आचार्य शुभचन्द्र को अपेक्षित है शुक्लध्यान है। जिसे जैन परम्परा में पूर्वविद ही प्राप्त कर सकते हैं। जैसा कि आचार्य उमास्वामी का कथन है - शुक्ले चाये पूर्वविदः // सामान्य ज्ञान के द्वारा स्थिर ध्यान हो पाना संभव नहीं है। अत: ध्याता को कम -से-कम पूर्वविद होना चाहिए। शायद इसी स्थिति का बोध कराने के लिए ज्ञानार्णव शब्द को चुना गया है। अर्थात् विशाल ज्ञान द्वारा किया जाने वाला ध्यान ही प्रशस्त ध्यान हो सकता है, अन्यथा वह कार्यक्षम नहीं होगा। ग्रन्थ का नाम जहाँ एक ओर अपने अन्दर निहित कथावस्तु का संकेत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर रचनाकार की विदग्धता को प्रमाणित भी। चूंकि रचना का नाम ही उसके अन्दर प्रतिपाद्य विषय को उद्घोषित करता है इसलिए लेखक के नामकरण का श्रम व योजना सार्थक है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से अध्येता उन सब विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है जो उसे अभीप्सित होते हैं। 1.ज्ञानार्णव, प्रस्तावना, पृ. 17. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/37.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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