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________________ व्याख्याओं आदि के रूप में यथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से पुन: पुन: विवेचित किया है। सर्वज्ञ तीर्थंकरों के वचन सूक्ष्म रूप में अद्यावधि अपनी सम्पूर्ण ज्योति-शक्तियों के साथ गगन मण्डल में स्पंदित हैं और साधक योगीजनों को उन वचनों में निहित महिमामय सदसंकल्पों के प्रत्यक्ष चित्रमय दर्शन और अनुभव भी होते रहे हैं। उनमें आज भी उनके अभिमुख होने पर मानव को मानवता तथा देवत्व में प्रतिष्ठित करने की क्षमताएँ वर्तमान हैं। योग का मार्ग सर्वत्र अर्हत्पुरुषों जिनेश्वरों के चरण चिह्नों से सुस्पष्ट चिह्नित है, इससे स्वपुरुषार्थ से, आत्म शरण लेने से अन्तर्यात्रित होने पर चला जाता है। यह योग शासन जैनों में मत्ति-मग्ग या मुक्तिमार्ग वा तपोयोग के नाम से जाना जाता रहा है। इसमें जीवन दर्शन के अतिरिक्त ध्यान, चारित्र, तप, अहिंसा आदि अनेक उपाय रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग का कथन है। ऋषिगणों ने इसे श्रेष्ठ विद्या स्वीकार किया - "सा विद्या या विमुक्तये'' - ऐसा उद्घोष किया। ___ अर्हत्पुरुषों ने मानव की अभिव्यक्ति को सुधारने हेतु तथा दुःख मुक्ति के हेतु मानव के अन्तर्निहित प्रभु-तत्त्व को ही बाहर प्रकट करने के प्रयत्न दिए हैं, मानव की वर्तमान चेतना के अन्य परम चेतना में उर्वीकरण के उद्योग किए हैं। उनके निकट वर्ण, जाति, कुल, मत, पन्थ आदि के ग्रहण तथा भेद रेखाएँ भी महत्त्वहीन रही हैं। वे सर्व कृत्रिम भेद सीमाओं से परे, स्वयं मानव के ही परम सत्य के खोजी और प्रवक्ता रहे हैं। यह परम सत्य ही मानव में सदा से विद्यमान रहा है और विकास की प्रतीक्षा में हैं। उस सत्य के निरावरण में दर्शन और आराधन ही मुख्य तत्त्व हैं / उस दर्शन को उन्होंने निर्विकल्प होकर प्राप्त किया। दर्शन का ही विस्तार ज्ञान है। वह ज्ञान समग्र अस्तित्व का है। समग्र अस्तित्व के दर्शन से ही समग्र ज्ञान का प्रतिफल मिलता है। अपने दर्शन तथा ज्ञान से बड़ा या उच्चतर न कोई तत्त्व है, न द्रव्य है। आत्मा स्वयं अपना ईश्वर है, नियामक है। अत: वही एक मात्र शरण है। पंचपरमेष्ठी इस आत्मा के ही स्वरूप हैं। परमेष्ठी का अर्थ है जो परम स्वरूप आत्मा में स्थित है। यही तो मानव आत्मा का परम प्राप्तव्य है। यह प्राप्त ही है - मात्र विकसित होने तथा आवरण क्षय होने की ही प्रतीक्षा है। मानव की सर्व इयत्ता अपने परम ज्ञान के उद्घाटन तक ही है - अर्थात् सर्वज्ञता ही इयत्ता है या कहें वही अनन्तता है। स्व तथा पर सब तत्त्वों तथा द्रव्यों की विद्यमानता ज्ञान तथा ज्ञान के द्वारा ही है। सब पर पदार्थ ही क्या - स्वयं आत्मा भी अपने अस्तित्व, सत्ता, परिचय, सिद्धि तथा सार्थकता के लिए आत्मा के चैतन्य ज्ञान की ऋणी है। . सत्य धर्म आत्मपरक व आत्मधर्म रूप ही हो सकता है, अनात्म या पर-स्वरूप रूप हो भी कैसे सकता है ? आत्मा का सहज स्वभाव दर्शन, ज्ञान रूप ही है और आत्मा 219
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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