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________________ अष्टम अध्याय . उपसंहार योग विद्या इस भारत धरा की ही उत्कृष्ट और अति प्राचीन काल से आई विद्या है। परम तत्त्व पारगामी मनीषी अर्हत्पुरुषों एवं तीर्थंकरों ने जिज्ञासा और विचारणा तक ही न रहकर अन्तरात्म क्षितिजों के पार स्वयं आनन्द मूर्ति ज्ञानघन रूप में ही अपने को विकसित भी किया था। योग विज्ञान का उत्स प्राणी-जीवन के परिष्कार को, निर्मल सत्य आनन्द स्वरूप को लक्ष्य करके तथा उसको ही समर्पित होकर इस भारत धरा पर उन्होंने किया। विश्व के अखिल धर्मों का एक ही स्रोत रहा है। सद्धर्म वही है जो मानव को दु:ख मुक्त करके निर्मल आनन्द स्वरूप में धृत रखे। मूल सधर्म के ही मूल आधार तत्त्वों को लेकर विभिन्न संप्रदाय परिपुष्ट हुए हैं। विभिन्न दर्शन-भूमियों पर से ही नानात्व दृष्टिगोचर होता है। निर्मल आत्म स्वरूप की अन्तर्दृष्टि पर तो प्राणीमात्र समान रूप से चेतन तत्त्व ही दीख पड़ता है। जब परम शिव प्रभु हिरण्यगर्भ वृषभेश्वर ने इस विश्व को इस युग के आरम्भ में सर्वप्रथम योगशासन दिया तब मानव जाति नाना मतों तथा संप्रदायों में विभक्त न थी। उस योगमय धर्म-प्रवर्तन में एक ही सधर्म की दृष्टि थी, एक ही निर्मल आत्म ज्ञान की अवधारणा थी। यह समूची मानव जाति के लिए थी। इसकी सीमाएँ किसी एक प्रदेश या कालखण्ड के लिए नहीं थी। यह शाश्वत धर्म अवतारणा थी। सर्व योगीजन, आगम, मनीषी पुरुष तथा प्राचीन संप्रदाय एक स्वर से हिरण्यगर्भ प्रभु को ही आदि पूर्णपुरुष तथा योग के प्रवक्ता स्वीकार करते हैं। जैन परम्परा उन्हें हिरण्यगर्भ कहने के अतिरिक्त प्रथम तीर्थंकर आदीश्वर आदि भी कहती है। वेद रचना से पूर्व योगविद्या उस योग शासन में परिपक्व हो चुकी थी, यह एक सर्वमान्य तथ्य है। सम्पूर्ण जीवन की विशिष्ट पद्धति रूप यह योग सारे विश्व में प्राचीनतम विद्या है। इसके प्राणदायी तत्त्वों को अपनी-अपनी धारणा तथा दर्शन मान्यता अनुसार सर्वत्र ग्रहण किया गया है। एक समान सूत्र की तरह यह योग सर्वधर्म-संप्रदायों की एकमूलता को भी प्रकट करता है। यह योग वेदपूर्व प्रागैतिहासिक काल से जुड़ा है। इसमें आत्मा की मौलिकता निर्मलता तथा अनेकान्त दृष्टि आदि वे तत्त्व हैं, जो मानव के सदरूपान्तरण के लिए मूलभूत हैं, तथा राष्ट्रीय एकीकरण, सर्वधर्मसमादर, मानसिक उत्क्रान्ति के लिए भी आधारभूत हैं। . - वेदों की तुलना में उपनिषद, जैन आगम तथा बौद्ध त्रिपिटक आदि अर्वाचीन समझे जाते हैं। परन्तु यह निश्चित है कि अर्वाचीन समझे जाने वाले आगम साहित्य में जो आध्यात्मिक चिन्तनधारा पाई जाती है, वह अति प्राचीनतम काल से ही चली आ रही है। 217
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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