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________________ होकर उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते वे 'विद्याधर श्रमण' इस पर्याय नाम से भुवन में प्रसिद्ध होते हुए अभिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं। उन मुनियों की बुद्धि दशपूर्वी जानी जाती है। 14. चतुर्दशपूर्वित्व - सम्पूर्ण श्रुत अर्थात् चौदह पूर्वो में पारंगतता। 15. अष्टांगमहानिमित्त - नभ, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न और स्वप्न - इन आठ भेदों सहित निमित्त ज्ञान में कुशलता प्राप्त होना। 16. प्रज्ञाश्रमण अथवा प्राज्ञश्रमण - अध्ययन के बिना ही चौदह पूर्वो में से अतिसूक्ष्म विषय का निरूपण करने में कुशलता। यह ऋद्धि औत्पत्तिकी, पारणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा भेद से चार प्रकार की होती है। इनमें से पूर्व भव में किए गये श्रुत के विनय से उत्पन्न होने वाली औत्पत्तिकी, निज-निज जाति में उत्पन्न हुई पारिणामिकी, दादशांग श्रुत के योग्य विनय से उत्पन्न होने वाली वैनयिकी और उपदेश के बिना ही विशेष तप की प्राप्ति से आविर्भूत हुई चतुर्थ कर्मजा प्रज्ञाश्रमणऋद्धि कहलाती है। 17. प्रत्येकबुद्धि - गुरु के उपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यग्ज्ञान और तप के विषय में प्रगति। - 18. वादित्व- शक्रादि के पक्ष को भी बहुत वाद से निरुत्तर कर देना और पर .. के द्रव्यों की गवेषणा करना। विक्रियाऋद्धि या वैक्रियऋद्धि शरीर को छोटा, बड़ा, भारी, हल्का आदि करने की क्षमता / यह 11 प्रकार की मानी गई है - _ 1. अणिमा - शरीर को अणु के समान छोटा बनाने की क्षमता। 2. महिमा - शरीर को मेरु के बराबर बड़ा बनाने की सामर्थ्य / 3. लघिमा - शरीर को वायु से भी हल्का बनाने की क्षमता। 4. गरिमा - शरीर को वज्र से भी अधिक भारी बनाना। 5. प्राप्ति - भूमि पर खड़े रहकर अंगुली से मेरु, सूर्य, चन्द्रादि को छू लेने की सामर्थ्य। 6. प्राक्राम्य - जल के समान पृथ्वी पर भी उन्मज्जन - निमज्जन क्रिया करना और पक्षी के समान जल पर भी गमन करना। 1..तिलोयपण्णत्ती, 4/1024-32. 211
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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