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________________ चरमशरीरी नहीं है उसको क्रम से मुक्ति होती है।'' - यह विचार आचार्य रामसेन ने अपने तत्त्वानुशासन में स्पष्ट निबद्ध किये हैं। इस प्रकार धर्मध्यान के अभ्यास के अनन्तर इससे अतिक्रान्त होता हुआ ध्याता अत्यन्त विशुद्धि के बल से साक्षात् मोक्ष का हेतुभूत शुक्लध्यान का, जो कि धर्म ध्यान पूर्वक होता है, निर्मलता के साथ प्रारम्भ करता है। धर्मध्यान का फल अतिशय पुण्य, संवर और निर्जरा - उत्कृष्ट धर्मध्यान के दारा शुभासव, संवर, निर्जरा और देवों का सुख आदि विपुल फल प्राप्त होते हैं। चारित्र की भावना के बल से जो ध्यान में लीन है, उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का आस्रव होता है। अथवा जैसे मेघपटल भवन से ताडित होकर क्षणमात्र में विलीन हो जाते हैं, वैसे ही ध्यानरूपी पवन से उपहत होकर कर्म-मेघ भी विलीन हो जाते हैं। आचार्य यतिवृषभ के मतानुसार 'सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के अन्त में कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीयकर्म का क्षय धर्मध्यान का ही फल माना जाता है।' इस धर्मध्यान में कर्मों का क्षय करने वाले क्षपक के सहृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टि नामकचौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से असंख्यातगुणी कर्म की हानि होती है। और जो कर्मों का उपशम करने वाले उपशामक हैं, उनके क्रम से असंख्यात गुणा कर्मों का उपशम होता है, इसलिये ऐसा धर्मध्यान आतंक-दाहादि दु:खों से रहित होता हुआ उपशमभाव रूप सुख को प्राप्त कराता है। , ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने धर्मध्यान के पुण्य रूप फल का निरूपण करते हुए कहा है - 'धर्मध्यान के ब्दारा स्वर्ग में देवों का सुख निन्द, क्षोभों से रहित, अभ्युदययुक्त और नित्य उत्सवों से युक्त दिव्य रूप प्राप्त होता है। जो भव्य पुरुष इस पर्याय के अन्त समय में समस्त परिग्रहों को छोड़कर धर्मध्यान से अपना शरीर छोड़ते हैं वे पुरुष पुण्य के साधन रूप ऐसे ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में तथा सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं।' शुक्लध्यान का फल - विशेष रूप से धर्मध्यान के फलभूत वे ही शुभास्रव आदि तथा अनुपम देवसुख ही आरम्भ के दो शुक्लध्यानों का भी फल है। किन्तु अन्तिम दो शुक्लध्यानों का फल मोक्ष की प्राप्ति माना जाता है। 1. तत्त्वानुशासन, 197. 2. धवला, पुस्तक 13, पृ. 77.. 3. तिलोयपण्णत्ती, 3/5 4. ज्ञानार्णव, 41/16. 204
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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