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________________ है। यही आत्मज्योति है। बहिरात्मा की आत्मकल्पना भ्रान्त है उसकी दृष्टि तो मात्र बाह्य दृष्टि है। मैं मैं ही हूँ, शरीर, वचन और इन्द्रियादिकसे मैं अलग हूँ, ऐसी अभ्रान्त दृष्टि वाला अन्तरात्मदृष्टि वाला होता है। जो आत्मा को अन्यसे, कर्मादिकसे बद्ध देखता है, वह दैत को देखता है, आत्मा को जड़-चेतनादिरूप अनुभव करता है। और जो आत्मा को दूसरे सब पदार्थों से विभक्त एवं भिन्न देखता है, वह उसे अबद्ध और निर्मल देखता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में आत्मा के स्वरूप को इस तरह स्पष्ट किया है - 'जो आत्मा को बंधरहित, पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्व रहित, चलाचल रहित, विशेष से अतीत, अन्य के संयोग से रहित, ऐसे पाँच भाव रूप से देखता है और अनुभव करता है ऐसे आत्मदर्शन और आत्मानुभूति को शुद्धनयात्मक जानना चाहिए।' यहाँ पस्सदि शब्द से दर्शन क्रिया की उत्कृष्टता और अनिवार्यता ग्राह्य है। इसी को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं - आत्मानुभूतिरिति शुद्ध नयात्मिका या, ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुढ्वा / / आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्पमेकोऽस्ति नित्यमवबोधघन:समन्तात् / / अन्तर्दृष्टि दारा यह जो आत्मानुभूति है, शुद्ध नयात्मिका है, वही वस्तुत: ज्ञानानुभूति है ऐसा जानकर आत्मा को आत्मा में सन्निविष्ट करके उसे सुनिष्कम्प एक व . सर्व प्रकार से नित्य अवबोध घन ही जानना और देखना चाहिए। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुहं अणण्णमविसेसं। . अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं / / ' जो अपने को (आत्मा को) अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँच भाव स्वरूप देखता है वह सर्व जिनशासन को देखता है, वह जिनशासन द्रव्य और भाव रूप है। अन्तर में विशेष ज्ञेयाकार रूप चित्रों को छोड़कर दर्शनमात्र तथा ज्ञानमात्र को ही देखा जाता है तथा अनुभव किया जाता है, तब ज्ञान आत्मा प्रकट अनुभव में आता है। अन्तर्दर्शन विधा द्वारा इन पाँच भावों मय आत्मा को देखने में ही सारा जिनशासन समाहित है। ऐसी अन्तर्दृष्टि दारा ही सारे जिनशासन को देखता है, ऐसी महिमा कही है अन्तर्दृष्टि की। इससे अधिक कहा भी क्या जा सकता है ? दशवैकालिक में भी ध्यान का सही सूत्र निबद्ध हुआ है - "संपिक्खए अप्पगं 1.समयसार, 14. 196
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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