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________________ आगे परमात्मा का ध्यान करने की विधि और फल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि - 'ध्यानी मुनि उस परमात्मा के स्वरूप में मन लगाकर उसके ही गुणग्रामों से उसमें ही अपने आत्मा को आपसे ही उस स्वरूप की सिद्धि के लिए जोड़ता है अर्थात् तल्लीन होता है, इस प्रकार निरन्तर स्मरण करता हुआ योगी उस परमात्मा के स्वरूप के अवलम्बन से युक्त होकर उसके तन्मयत्व को प्राप्त होता है। वह परमात्मा मेरे ग्रहण करने योग्य है और मैं इसका ग्रहण करने वाला हूँ, ऐसे ग्राह्यग्राहक भाव से वर्जित होता है अर्थात् भेदभाव नहीं रहता। वह ध्यान करने वाला मुनि अन्य सबकी शरण छोड़कर उस परमात्म स्वरूप में ऐसा लीन होता है कि ध्याता और ध्यान इन दोनों के भेद का अभाव होकर ध्येय स्वरूप से एकता को प्राप्त हो जाता है। जिस भाव में आत्मा अभिन्नता से परमात्मा में लीन होता है वह समरसी भाव आत्मा और परमात्मा की समानता स्वरूप भाव है सो उस परमात्मा और आत्मा को एक करने का स्वरूप कहा गया है। अभिप्राय यह है कि जब जीव 'जो परमात्मा है वही मैं हूँ', इस प्रकार ध्याता और ध्येय के विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प ध्यान में लीन होता है तब वह उसके प्रभाव से स्वयं, परमात्मा बन जाता है। पूज्यपाद स्वामी ने इसी भाव को प्रकट करते हुए लिखा है - 'यह आत्मा भिन्न आत्मा स्वरूप अरिहंत और सिदों की उपासना अर्थात् आराधना करके उन्हीं के समान अरिहंत और सिद्ध बनता है, जिस प्रकार दीपक से भिन्न रहने वाली बत्ती दीपक की उपासना (समीपता को प्राप्त) कर दीप रूप बनती है। अथवा यह आत्मा अपने चिदानन्द स्वरूप आत्मा की ही आराधना कर परमात्मा हो जाता है। जैसे वृक्ष अपने को अपने द्वारा घर्षण कर अग्नि रुपता को प्राप्त होता है। .. धर्म्यध्यान के अवलम्बन में वाचना, पृच्छना, परिवर्तन एवं अनुप्रेक्षा इन चारों को भी स्वीकार किया गया है। इसके साथ जैनागमों में मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ जैसी भावनाओं को भी अवलम्बन स्वरूप कहा गया है / इन भावनाओं का किञ्चित् विवेचन कर लेना उपयुक्त होगा। मैत्री - जिस साधक में मैत्री भावना होती है वह सभी जीवों को समान भाव से देखता है उन्हें अपनी आत्मा के समान जानता है। इस भावना के अभ्यास से उस साधक के हृदय में से ईर्ष्या, शत्रुता आदि सभी अशुभ भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और 'सब जीव मेरे मित्र हैं' ऐसी भावनाएँ बलवती हो जाती हैं। उसका अहिंसा भाव परिपुष्ट हो जाता है वह सभी जीवों के हित में अपना चित्त लगाए रखता है। वह सभी की कल्याण कामना 1. ज्ञानार्णव, 31/28, 33. 2. वही, 31/35-6. 3. वही, 31/37-8. 4. समाधितन्त्र, 97-8. 5..भगवती आराधना, गाथा 1705. 6. तत्त्वार्थसूत्र, 7/11. 193
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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