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________________ वीचार कहा गया है। इसमें साधक कभी तो अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का चिन्तन करने लगता है और कभी शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का। जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्द को व्यंजन कहते हैं। जिसमें वितर्क के द्वारा अर्थ आदि में क्रम से अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं वही पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान कहलाता है। कषायपाहुड, राजवार्तिक, धवला टीका, महापुराण, द्रव्यसंग्रह और मूलाचार प्रदीप जैसे अनेक ग्रन्थों में ज्ञानार्णव के समान ही प्रथम शुक्लध्यान के स्वरूप को स्वीकार किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है कि - 'जब तक इन तीनों योगों को आत्मबुद्धि से ग्रहण किया जाता है तब तक यह जीव संसार में ही रहता है। किन्तु अचिन्त्य प्रभाव वाले ध्यान के कारण ही शान्तचित्त वाला मुनि क्षणमात्र में ही अपने समस्त कर्मों को मूल से नाश कर देता है। इस ध्यान के द्वारा साधक अपने चित्त पर विजय प्राप्त करता हुआ कषायों को शान्त करता है और इसके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख को प्राप्त करता है। . क्योंकि इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। ___ 2. एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान - एकत्ववितर्क अवीचार नामक ध्यान शुक्लध्यान का दूसरा चरण है। इस ध्यान में साधक वायु से रहित घर में रखें दीपक के समान चित्त की उत्पाद-स्थिति-व्यय में से किसी एक ही पर्याय में अतिशय रूप से स्थिर होता है। अर्थात् इसमें अर्थान्तर, व्यंजनान्तर और योगान्तर के संक्रमण से रहित होने के कारण अवीचार होकर पूर्वगत श्रुत का ही आश्रय लेता है। एक द्रव्य में चित्त स्थिर होने के कारण यह ध्यान एकत्व कहलाता है। इस शुक्लध्यान के साधक को एक विशेष प्रकार के उदात्त अनुभव की प्राप्ति होती है। उस योगी को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत् दीखने लगता है। क्योंकि इस ध्यान से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। और केवलज्ञान के महत्त्व को बतलाते हुए कहा है कि इससे योगी सर्वज्ञ व त्रिकालज्ञ हो जाता है। इन्द्र, सूर्य, मनुष्य एवं देवादि उसको पूजते हैं और वह अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि को प्राप्त करता है। ऐसा योगी जहाँ - जहाँ जाता है सर्वत्र खुशहाली एवं समृद्धि व्याप्त हो जाती है। यह ध्यान तीन योगों में से किसी एक योग के काल में सम्पन्न होता है। इसका 1. तत्त्वार्थसूत्र, 9/ 2. ज्ञानार्णव, 42/15. 3. समाधितन्त्र, 62. 4. ज्ञानार्णव, 42/20. 5. वही, 42/26. 6.योगशास्त्र, 11/23. 172
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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