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________________ उक्त चारों प्रकार के वायु बाईं तथा दाहिनी नाड़ी से होकर शरीर में प्रवेश करते हैं / इस प्रकार इनका प्रवेश शुभ फलदायक समझा जाता है और जब उक्त वायु दोनों नाड़ियों से निकल रही होती है तो अशुभ फलदायक है।' अत: निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि योगसाधना के लिए प्राणायाम अपेक्षित है, क्योंकि जहाँ इससे शरीर तथा मन का शुद्धीकरण होता है, वहाँ इसकी सिद्धि से जन्म और मृत्युकाल अथवा शुभाशुभ का ज्ञान होता है। फिर भी विभिन्न प्राणायामों की सिद्धि में मानसिक अवरोध उत्पन्न होने से जैनयोग इसे विशेष महत्त्व नहीं देता, यद्यपि प्राणायाम के विषय में कई प्रकार के विवेचन, विश्लेषण जैनयोग ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। प्रत्याहार - धारणा जो प्रशान्तबुद्धि विशुद्धतायुक्त मुनि अपनी इन्द्रियों और मन को इन्द्रियों के विषयों से खींचकर जहाँ-जहाँ अपनी इच्छा हो, वहाँ-वहाँ धारण करे,सो प्रत्याहार कहा जाता है। अर्थात् मुनि के इन्द्रिय और मन वश में होते हैं, तब मुनि जहाँ अपना मन लगाते हैं वहाँ लग सकता है, यह प्रत्याहार है। वस्तुत: प्रत्याहार का अर्थ है उल्टा लौटना (प्रति-आहार, प्रति = प्रतिलोम-विपरीत भाव) / प्रत्याहारसाधना में स्वभावत: बहिर्मुखी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से विमुख कर अन्तर्मुखी बनाई जाती हैं, अत: उसे प्रत्याहार कहते हैं। भगवद्गीता में प्रत्याहार का वर्णन इन शब्दों में किया गया है - प्रत्याहार साधना के लिए यत्नविशेष की आवश्यकता नहीं पड़ती। इन्द्रिय व्यापार चित्त की गति के अधीन है। यम, नियम, प्राणायामादि के अनुष्ठान से चित्त बाह्य विषयों से विरत हो चुकता है। अत: इन्द्रियाँ भी स्वत: विषयों से प्रत्याहृत हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियाँ अनुकरण जैसा करती हैं, पर वास्तव में अनुकरण नहीं करतीं, क्योंकि चित्त तो प्रथम बाह्य विषयों से विमुख होकर बाद में आत्मतत्त्वाभिमुखी होता है, किन्तु इन्द्रियाँ केवल बाह्य विषयों से विमुख होती हैं, चित्तवत् आत्मतत्त्वाभिमुख नहीं होती। इस प्रकार प्रत्याहार इन्द्रियों का धर्म है, चित्त का नहीं।' ग्रन्थकार प्रत्याहार का वर्णन करते हुए लिखते हैं - नि:संग (परिग्रहरहित) और संवर रूप हुआ है मन जिसका और कछुए के समान संकोच रूप है इन्द्रियाँ जिसकी ऐसा मुनि ही रागद्वेष रहित समभाव को प्राप्त होकर ध्यानरूपी तंत्र में स्थिरस्वरूप होता है। जितेन्द्रिय योगी विषयों से इन्द्रियों को तथा इन्द्रियों से मन को पृथक् करके तथा 1. ज्ञानार्णव, 27/1. 2. योगदर्शन (भाष्यबोधिनी). 3. ज्ञानार्णव, 27/2-4. 134
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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