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________________ प्राण वायु पाँच प्रकार मानी गई है - प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। किन्तु इन पाँच प्राणों के अतिरिक्त पाँच उपप्राण भी माने जाते हैं - नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय / हृदय में प्राण, अपान गुदमंडल में, समान नाभिदेश में, उदान कण्ठमध्य में और व्यान सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त माना जाता है। इनका वर्ण क्रमश: हरा, काला, इन्द्रधनुषी, लाल श्वेत है। ये पंचवायु प्रधान माने जाते हैं। डकार में नाग, आँख खोलने में कूर्म, छींकने में कृकल (कृकर) और देवदत्त जंभाई लेने में होता है। मृत्यु हो जाने पर बिना नष्ट हुए शरीर में कार्यरत जो वायु है, उसे धनंजय कहते हैं।' आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में ध्यान की सिद्धि और अन्त:करण की स्थिरता के लिए प्राणायाम को जैनागमानुसार प्रशंसनीय माना है। प्राणायाम के बिना मन के ऊपर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती इसलिए बुद्धिमान् मुनिजनों को उसे पहले ही स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए / पूर्वाचार्यों ने इस पवन के स्तम्भन स्वरूप प्राणायाम के लक्षण भेद से तीन प्रकार का कहा है - 1. पूरक, 2. कुम्भक, और 3. रेचक। .. 1. पूरक - दादशान्त अर्थात् ब्रह्मतालु मस्तक के छिद्र से अथवा दादश अंगुलपर्यन्त से खेंचकर पवन को अपनी इच्छानुसार अपने शरीर में पूरण करे उसको वायुविज्ञानी पंडितों ने पूरक पवन कहा है। 2. कुम्भक - उस पूरक पवन को स्थिर करके नाभि रूप कमल के भीतर घड़े के आकार में अतिदृढ़तापूर्वक रोकना कुम्भक प्राणायाम है। 3. रेचक-श्वासवायुको जो उदर के भीतर अतिशय प्रयत्नपूर्वक बाहर निकाले ___ उसको पवनाभ्यास के शास्त्रों में विदानों ने रेचक प्राणायाम कहा है। चार प्रकार के प्राणायाम का भी उल्लेख मिलता है - 1. प्रत्याहार, 2. शान्त, 3. उत्तर एवं 4. अधर। घेरण्डसंहिता में कुम्भक प्राणायाम के आठ भेद उल्लिखित हैं - 1. सहित, 2. सूर्यभेदी, 3. उज्जायी, 4. शीतली, 5. भस्त्रिका, 6. भ्रामरी, 7. मूर्छा तथा 8: केवली।' सिद्धसिद्धान्तपद्धति के अनुसार प्राण की स्थिरता प्राणायाम है और इसके रेचक, पूरक, कुम्भक और संघट्टीकरण ये चार प्रकार हैं। इनमें पाप एवं दुःख का नाश होता है, तेज एवं सौन्दर्य बढ़ता है, दिव्यदृष्टि, श्रवणशक्ति, कामाचारशक्ति, वाक्शक्ति आदि शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार प्राणायाम से अनेक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। प्राणायाम और बौद्धदर्शन - बौद्धदर्शन में प्राणायाम को आनापानस्मृति 1. शिवसंहिता, 3/29, 30, 54. 2. Tibetan Yoga and Secret Doctrines, P. 187-9 3. ज्ञानार्णव 26/4/42, 43 4. सिद्धसिद्धान्तपद्धति, 2/35. 132
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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