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________________ जो चेतना से संयुक्त रहकर जीता है, जीता था और जीवित रहेगा वह जीव है। स्वभाव की अपेक्षा से भव्य और अभव्य ऐसे दो भेद भी जीवों के हैं। जो जीव द्रव्य, क्षेत्र आदि रूप सामग्री को प्राप्त करके सम्यग्ज्ञानादि से परिणत होंगे वे भव्य हैं। जीवों का अभव्यपना अन्ध पाषाण के समान है, जिनको सैकड़ों जन्मों में भी सम्यग्दर्शनादि की उपलब्धि नहीं होती वे अभव्य जीव हैं। यह जीव की स्वभावगत योग्यता है। जिस प्रकार सवर्णाढि धातओं का मल के साथ अनादि सम्बन्ध है। उसी प्रकार जीवों का कर्ममल से अनादि सम्बन्ध है। भव्य और अभव्य दोनों का ही संसार अनादि है, परन्तु भव्य का संसार तो अन्तसहित है, क्योंकि उसको मुक्ति प्राप्त होगी और अभव्य का अन्तरहित है, क्योंकि उसको मुक्ति प्राप्त नहीं होगी। ऐसा वस्तुस्वभाव है, इसमें कोई हेतु नहीं।' शुद्ध सम्यग्दृष्टियों को चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों का आश्रय करके उन संसारी जीवों के स्वरूप को जानना चाहिए और तदनुसार श्रद्धान भी करना चाहिए। संसारी जीवों के स्वरूप को जानने के लिए जीवसमास, मार्गणा' और गुणस्थान आदि (पर्याप्ति व प्राण आदि) का जानना आवश्यक है, क्योंकि उनके जाने बिना उक्तं जीवों का पूर्णबोध नहीं हो सकता है। उनमें जीवसमास का जीवों का संक्षेप अर्थात् जिन अवस्था विशेषों के व्दारा अनेक जीव और उनकी जातियों का सामूहिक रूप में बोध होता है, उन्हें जीवसमास कहा जाता है। वे संक्षेपसे चौदह हैं, उत्तर भेदों को ग्रहण करने पर उक्त जीवसमास के सत्तावन या और भी अधिक भेद भी हो जाते हैं। मार्गणा का अर्थ अन्वेषण होता है। तदनुसार जिन अवस्था विशेषों के द्वारा अथवा जिन अवस्थाओं में जीवों का अन्वेषण किया जाता है उनका नाम मार्गणा है। इनके मुख्यत: चौदह भेद होते हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार। मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदि के होने पर जीवों के जो परिणाम प्रादुर्भूत होते हैं उन्हें गुणस्थान कहते हैं। इनके भी चौदह भेद हैं जो निम्न हैं - मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली। इन दोनों का विशेष विवरण जीवकाण्ड आदि अन्य ग्रन्थों से जाना जा सकता है, विस्तारभय से यहाँ देना योग्य नहीं है। अजीवतत्त्व - जिस प्रकार आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार जिस अजीव के सम्बन्ध से आत्मा विकृत होता है, उसमें विभाव परिणति होती है उस अजीव 1. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड गाथा 2. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 5/8. द्रव्यसंग्रह, गाथा 10. 3. ज्ञानार्णव,6/17. 4. वही, 6/19-24. 5. वही, 6/25. 88
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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