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________________ सम्यग्दर्शन व वीतराग सम्यग्दर्शन / ' यहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणों के ब्दारा , अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। इन सभी भेदों को नि:शंकितादि गुणों से भूषित होना चाहिए / सम्यक्त्व और ज्ञान में महान् अन्तर होता है, जो कि सूक्ष्म विचार के बिना पकड़ में नहीं आता। जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञान रूप हैं सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होने के कारण अन्तर में अभिप्राय या लब्धि रूप अवस्थित मात्र रहा करता है। मोक्ष में इसका सर्वोच्च स्थान है क्योंकि इसके बिना आगमज्ञान, चारित्र, व्रत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शनों के लक्षणों में भी स्वात्मसंवेदन सर्वप्रधान हैं क्योंकि बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिचिंत्कर है। सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के समय उपलब्ध होने वाले निमित्तों की अपेक्षा जातिस्मरण, जिनबिम्ब, जिनमहिमदर्शन आदि को भी इसमें निमित्त स्वीकार किया गया है। यह सम्यग्दर्शन सर्वप्रथम होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व के नाम से जाना जाता है। इसके अनन्तर नियम से गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। कदाचित् उसके बाद वेदक सम्यक्त्व तथा तत्पूर्वक द्वितीयोपशम या क्षायिक हो सकता है। किन्तु क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में विशेषता यह होती है कि यह कर्मभूमिज मनुष्यों को केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही आरम्भ होता है। सम्यग्दर्शन की पात्रता - एक अनादि मिथ्यादृष्टि, जिसे आज तक कभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है और दूसरे सादि मिथ्यादृष्टि, जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होकर छूट गया है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की सत्ता होती है, क्योंकि उसके दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक्त्वमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन तीन प्रकृतियों में से एक मिथ्यात्व प्रकृति का ही बन्ध होता है, शेष दो का नहीं। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन होने पर उसके प्रभाव से यह जीव मिथ्यात्वप्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति के भेद से तीन खण्ड करता है। इस तरह सादि मिथ्यादृष्टि जीव के ही सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति की सत्ता हो सकती है। सादि मिथ्यादृष्टि जीवों में मोहनीय कर्म की सत्ता के तीन विकल्प बनते हैं - 1. अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला, 2. सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता वाला और 3. छब्बीसप्रकृतियों की सत्ता वाला। जिस जीव के दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियाँ विद्यमान हैं वह अहाईस प्रकृतियों की सत्ता वाला है। जिस जीव के सम्यक्त्वप्रकृति की उदेलना हो गई है वह सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता 1. सर्वार्थसिद्धि, 1/2. 2. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 648. 3. वही, कर्मकाण्ड, गाथा 26. 82
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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