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________________ वीं शती) ने गाथा 48 की टीका में पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनं / / रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् / / ' इस श्लोक को उद्धृत करते हुए आर्त आदि के साथ इस प्रकार के विचित्र ध्यान की सूचना की है।' ___ आचार्य अमितगति द्वितीय (11वीं शती) विरचित श्रावकाचार के 15वें परिच्छेद में ध्यान का वर्णन किया गया है। वहाँ प्रथमत: ध्यान के आर्त्त, रौद्र आदि चार भेदों का विवेचन करते हुए ध्यान के इच्छुक जीव के लिए ध्याता, ध्येय, ध्यान की विधि और ध्यानफल इन चार के जान लेने की प्रेरणा दी गई है। तत्पश्चात् उसी क्रम से उनका निरूपण करते हुए वहाँ ध्येय के प्रसंग में पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और अरूप या रूपातीत इन चार का भी वर्णन किया गया है। यहाँ पदस्थ ध्यान का निर्देश पिण्डस्थ के पूर्व में किया गया है। आचार्य वसुनन्दी (12 वीं शती) विरचित श्रावकाचार में इनका निरूपण पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के क्रम से किया गया है। योगीचन्द्र या योगीन्दुदेव प्रणीत योगसार में इन चारों ध्यानों के नाम मात्र का निर्देश किया गया है। डॉ. उपाध्ये ने . योगीन्दु के समय पर विचार करते हुए उनके ईसा की छठी शताब्दी में होने की कल्पना की है। तदनुसार यदि वे छठी शताब्दी के आसपास हुए हैं तो यह कहा जा सकता है कि उक्त पिण्डस्थ आदि ध्यानों का निर्देश सर्वप्रथम उन्हीं के द्वारा किया गया है।' - आचार्य हेमचन्द्रसूरि (12-13 वीं शती) विरचित योगशास्त्र में ध्यान के अन्तर्गत आर्त और रौद्र इन दो अप्रशस्त ध्यानों का कहीं कोई निर्देश नहीं किया गया। वहां पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चार भेदों की प्ररूपणा क्रम से सातवें, आठवें, नौवें और दसवें इन चार प्रकाशों में की गई है। तदनन्तर इसी दसवें प्रकाश में आज्ञाविचयादि चार भेदों में विभक्त धर्मध्यान का निरूपण करके आगे ग्यारहवें प्रकाश में शुक्लध्यान का विवेचन किया गया है। भास्करनन्दी (12 वीं शती) विरचित ध्यानस्तव में ध्यानशतक के समान ही प्रथमत: आर्त आदि चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें आदि के दो को संसार का और अन्तिम दो को मुक्ति का कारण कहा गया है। आगे उनमें से प्रत्येक के चार-चार भेदों का / निरूपण करते हुए पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद से उक्त समस्त ध्यान को चार प्रकार का कहा गया है। तदनन्तर इन चारों के पृथक्-पृथक स्वरूप को भी प्रकट किया गया है। 1.योगसार, 98. 2. वसुनन्दी श्रावकाचार, 469-74. 3. परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना, पृ. 115. 4. योगशास्त्र, 1-4 5. ध्यानस्तव, 5-36. 6. ज्ञानार्णव, 3/28. 77
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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