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________________ 82 : प्रो० के० आर० चन्द्र का ओ' भी मिलता है / अतः इस प्रकार के संशोधन की उपयुक्तता में कोई भाषिक बाधा उपस्थित होती हो, ऐसा मानने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है / ___ 3. भाषा की दृष्टि से विश्लेषण महापच्चक्खाण में द्वितीय पाद में 'सरीरादि' पाठ है जबकि मूलाचार में 'सरीराई' (मध्यवर्ती द का लोप) पाठ है अतः महापच्चक्खाण के विभक्ति रहित पाठ के बदले में विभक्ति युक्त पाठ 'सरीरादिं' अधिक उपयुक्त लगता है / महापच्चक्खाण के 'सरीरादि सभोयणं' और मूलाचार के सरीराइं च सभोयण में 'सभोयणं' में जो प्रारंभ में 'स' है इसका कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है / अतः यह अंश या तो एक साथ 'सरीरादिसभोयणं' होना चाहिए या 'सरीरादिं च भोयणं' अलग-अलग होने चाहिए / दोनों प्रकार के पाठों में छन्द की दृष्टि से कोई त्रुटि नहीं आती है और इस पद के वर्गों की संख्या भी आठ बन जाती है / महापच्चक्खाण के तीसरे पाद में 'वय' शब्द विभक्ति रहित है अतः यहाँ पर 'वयकाएणं' की संभावना की जा सकती है और मूलाचार में 'वचि' का प्रयोग भी भाषिक दृष्टि से उपयुक्त प्रतीत नहीं होता है। . महापच्चक्खाण में कारणं' का जो प्रयोग है, वह भाषिक दृष्टि से परवर्ती है / मूलाचार का 'काएण' प्रयोग पुराना है / अतः भाषा और छन्द की दृष्टि से इस गाथा का रूप पूर्वकाल में निम्नप्रकार से रहा होगा, जो परवर्ती काल में दोनों ग्रंथों में बदल गया- . बाहिरऽब्भंतरं ओवहिं, सरीरादि च भोयणं / मणसा वयकाएण, सव्वं तिविहेण वोसरे / / प्राचीन अनुष्टुप छन्द में पद्य के किसी-किसी पद में 8 के बदले में 9 वर्गों की भी परंपरा प्राप्त होती है, यह पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है / (5) महापच्चक्खाण-पइण्णयं की गाथा 5 का पाठ इस प्रकार है : रागं बंधं पओसं च हरिसं दीणभातयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं, रइमरइं च वोसिरे / / आउरपच्चक्खाण की गाथा 23 में रइमरइं' के बदले में 'रइं अरइं' पाठ है अन्यथा पूरी गाथा महापच्चक्खाण की गाथा के समान ही है / मूलाचार की गाथा 44 का पाठ इस प्रकार है : रायबंधं पदोसं च, हरिसं दीणभावयं / उस्सुगत्तं भयं सोगं, रदिमरदिं च वोसरे / /
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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