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________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 51. अत्यन्त कठिन है / इसमें कहा गया है कि व्यक्ति के मन में कुछ अन्य बातें होती हैं, वह करता कुछ अन्य है और वह भाषण अन्य ही रूप से करता है। इसप्रकार इस अध्याय में मनुष्य के दोहरे जीवन का सम्यक् चित्रण प्रस्तुत किया गया है / अध्याय के अन्त में बताया गया है कि व्यक्ति की साधुता या दुराचारिता का आधार बाह्य समाज से मिलने वाली प्रशंसा या निन्दा नहीं है, अपितु उसकी अन्तर की मनोवृत्ति ही है / पाँचवे अध्याय में पुष्पशालपुत्र के उपदेशों का संकलन है / इस अध्याय में पुष्पशाल के उपदेशों का प्रारम्भ निम्न शब्दों से होता है-'अंजलिपूर्वक पृथ्वी पर मस्तक रखकर उन्होंने समस्त शयनासन तथा भोजनपान का त्याग कर दिया। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें समाधिमरण का उपदेश दिया गया है / इसके अतिरिक्त इस अध्याय में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के त्याग का भी निर्देश मिलता है। साथही क्रोध और अहंकार का त्याग करके आत्मज्ञान के द्वारा समाधि की प्राप्ति का निर्देश किया गया है / 11 वल्कलचीरी नामक छठे अध्याय में मुख्य रूप से नारी के दुगुणों की चर्चा करते हुए स्त्री के त्याग का निर्देश किया गया है / 12 सातवें अध्याय में कुम्मापुत्त (कूर्मापुत्र) के उपदेशों का संकलन है / इसमें तपस्या के द्वारा सर्वदुःखों का क्षय करने का उपदेश देते हुए इस बात पर बल दिया गया है कि व्यक्ति को आलस्य का परित्याग करना चाहिए / 13 आगे यह भी कहा है कि जो व्यक्ति कामनाओं से ऊपर उठ जाता है, वही प्रव्रज्या प्राप्त कर सकता है / 14 . आठवें केतलीपत्त (केतलीपत्र) नामक अध्याय में ग्रन्थि छेद का उपदेश दिया गया है / इसमें बताया गया है कि ग्रन्धि के कारण समाधि का लोप होता है, इसलिए राग-द्वेष रूप ग्रन्थि जाल का छेदन करके ही दुःखों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है / 15 / / ... नवें महाकाश्यप नामक अध्याय में पुनः कर्मसिद्धान्त का निरूपण है / इस अध्याय में बताया गया है कि जब तक कर्म हैं तब तक जन्म-मरण की परम्परा है / अतः कर्ममूल को समाप्त कर देना आवश्यक है / कर्ममूल की समाप्ति के लिए इसमें संवर और निर्जरा का उपदेश दिया गया है / 16 तेतलीपुत्र नामक दसवें अध्याय में मुख्यरूप से सांसारिक प्राणियों के प्रति अविश्वास की बात कही गई है / इस अध्याय में तेतलीपुत्र कहते हैं-'दूसरे श्रमण-ब्राह्मण श्रद्धा (आस्था) की बात कहते हैं, किन्तु मैं अकेला ऐसा हूँ जो अनास्था का प्रतिपादन करता हूँ / 17 वस्तुतः यह अनास्था और अविश्वास ही उनके वैराग्य का कारण है / . मंखलिपुत्त (मंखलिपुत्र) नामक ग्यारहवें अध्याय में मंखलिपुत्त के उपदेशों का संकलन है। इस अध्याय में उन्होंने यह बताया है कि वायी कौन है ? 8 अर्थात् ऐसा गुरु कौन है, जो व्यक्ति को संसार-सागर से पार करा सके / इसप्रकार इस अध्याय में मुख्य रूप से कुगुरु और सुगुरु के भेद को स्पष्ट करते हुए सुगुरु का महत्त्व प्रतिपादित किया गया
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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