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________________ समाधिमरणेतर प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 45 चन्द्रकवेध्यक' नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ में आचार के जो नियम आदि बताए गये हैं उनका पालन कर पाना चन्द्रकवेध (राधा-वेध) के समान ही मुश्किल है / इस ग्रन्थ में सात द्वारों से सात गुणों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार हैं 1. विनयगुण 2. आचार्य गुण 3. शिष्यगुण 4. विनय-निग्रहगुण 5. ज्ञानगुण ६.चारित्रगुण और 7. मरणगुण / प्रारम्भ में ग्रन्थकार मंगलाचरण करते हुए कहता है कि ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले तथा लोक में ज्ञान का उद्योत करने वाले जिनवरों को नमस्कार हो / ग्रन्थकार के इस मंगलाचरण से यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सामान्यतया रत्नत्रय सम्यगज्ञान, सम्यगदर्शन और सम्यगचारित्र तीनों का नामोल्लेख साथ-साथ ही होता है तो फिर यहाँ ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्रका उल्लेख क्यों नहीं हुआ है ? किन्तु इस प्रश्न का समाधान करते हुए ग्रन्थकार गाथा 77 में कहता है कि जो ज्ञान है वही क्रिया है (अर्थात् चारित्र है)। इस कथन से प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ने सम्यगचारित्र का समावेश सम्यग्ज्ञान में ही कर दिया है / यह कथन ग्रन्थकार का अपना पृथक चिन्तन है / अन्य किसी आगम ग्रन्थ में यह शैली अपनाई गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता / ग्रन्थकार इस सूत्र को मोक्षमार्ग में ले जाने वाला सूत्र कहता है / विनयगुण नामक प्रथम द्वार के अनुसार किसी शिष्य की महानता उसके द्वारा अर्जित व्यापक ज्ञान पर निर्भर नहीं है वरन् उसकी विनयशीलता पर आधारित है / गुरुजनों का तिरस्कार करने वाला विनय रहित शिष्य लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता है, किन्तु जो विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करता है वह शिष्य सर्वत्र विश्वास और कीर्ति प्राप्त करता विद्या और गुरु का तिरस्कार करने वाले जो व्यक्ति मिथ्यात्व से युक्त होकर लोकैषणा में फँसे रहते हैं ऐसे व्यक्तियों को ऋषिघातक तक कहा गया है / विद्या को इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखप्रद बतलाया है / .. विद्याप्रदाता आचार्य एवं शिष्य के विषय में कहा है कि जिसप्रकार समस्त प्रकार की विद्याओं के प्रदाता गुरु कठिनाई से प्राप्त होते हैं उसीप्रकार चारों कषायों तथा खेद से रहित सरलचित्त वाले शिक्षक एवं शिष्य भी मुश्किल से प्राप्त होते हैं।६ विनयगुण के पश्चात आचार्यगुण की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी के समान सहनशील, पर्वत की तरह अकम्पित, धर्म में स्थित चन्द्रमा की तरह सौम्यकांति वाले, समुद्र के समान गम्भीर तथा देश, काल के जानकार आचार्यों की सर्वत्र प्रशंसा होती है / 7 आचार्यों की महानता के विषय में कहा गया है कि आचार्यों की भक्ति से जहाँ जीव इस लोक में कीर्ति और यश प्राप्त करता है वहीं परलोक में विशुद्ध देवयोनि और धर्म में सर्वश्रेष्ठ बोधि को प्राप्त करता है / आगे कहा गया है,कि इस लोक के जीव तो क्या देवलोक में स्थित देवता भी अपने आसन व शय्या आदि का त्याग कर अप्सरा समूह के साथ आचार्यों की वन्दना करने के लिए जाते हैं।"
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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