SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 13 (4) मिथ्यादुष्कृत कुलक' (2) इसमें भी मंगलाचरण का अभाव है / इसमें 17 गाथायें हैं / कुलक का आरम्भ आराधक द्वारा संसार-चक्र में विविध योनियों में भ्रमण करते समय जिन-जिन प्राणियों को दुःख दिया गया उनके प्रति मिथ्या दुष्कृत से किया गया है। विभिन्न भवों में जो मातापिता, पत्नी, मित्र, पुत्र और पुत्रियां रही हैं जिनका इस समय त्याग किया जा रहा है उनके प्रति मिथ्या दुष्कृत कहा गया है / राग-द्वेषवश जिन एकेन्द्रिय जीवों का वध हुआ, इस लोक और परलोक में राग-द्वेषवश मृषावाद भाषण किया गया, लोभ-दोष से जो परिग्रह किया गया, राग के कारण अशनादि भोजन किया गया, उसके लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है। इस लोक और परलोक में जो मिथ्यात्व मोह से मूढ़ हो साधुओं की सेवा, साधर्मिक वात्सल्य, चतुर्विध संघ की भक्ति नहीं की गई उसके लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है / अन्त में चारों गतियों के जीवों के प्रति कृत पापों के लिए मिथ्या दुष्कृत किया गया है / 6 (5) आत्मविशोधिकुलकर - इस प्रकीर्णक में चौबीस गाथाओं में विविध दुष्कृतों की निन्दा, आराधक द्वारा आत्म-विशुद्धि के लिए की गयी है / आराधक, अरहंत, सिद्ध, गणधर प्रमुखों के सम्मुख खड़े होकर अपने दुश्चरितों की समालोचना करता है / सूक्ष्म और बादर के प्रति प्रमाद और दर्प से जो भी अकृत्य हुये हों या ज्ञान के अतिचार जाने या अनजाने में हुए हों, जिन वाचनों में जो अश्रद्धा हुई हो, सांसारिक वस्तुओं के प्रति यदि समभाव न रहा हो, छः प्रकार के जीवनिकाय, बादर और सूक्ष्म के प्रति जाने या अनजाने जो प्रमाद हुआ हो एवं हासपरिहास में या अज्ञान में जो मृषावाद भाषित किया हो उसके लिए निन्दा की गयी है ।रे लोभवश दूसरे की अदत्त वस्तु ग्रहण हुई हो या सत्य को छिपाया हो, मैथुनभाव से तिर्यंच, मनुष्य और देव को स्पर्श किया हो, परिग्रह भाव से सचित्त, अचित्त और मिश्र वस्तुओं का ग्रहण, जिह्वादोष से या अज्ञानता से रात्रिभोज, रागाग्नि दीप्त होने के कारण आर्तध्यान से चारित्र को मलिन किया हो, दोष पिशाचवश विवेक नष्ट होने, अशुभ लेश्या के कारण चारित्र, कलुषित किया हो, आहार, भय, परिग्रह. मैथुन संज्ञा से परिभूत जो अकृत्य किया हो, उसकी तीन योग और तीन करण से आराधक द्वारा निन्दा की गई है। आराधक द्वारा चरण, करण, शील और भिक्षु प्रतिमाओं में जो अतिचार हुए हों, जिन, सिद्ध, गणधर, उपाध्याय, साधुओं और श्रेष्ठ गुणियों के प्रति जो आशातना की हो, प्रमाद-दोष से जो अन्य भी दुश्चरित किये हों, उनकी तीन करण और तीन योग से निन्दा है। इसके बाद आहार और समस्त शारीरिक क्रियाओं के त्याग का निर्देश है / अन्त में आलोचना द्वारा आत्मविशुद्धि का माहात्म्य बताया गया है / 6 (6) चतुःशरण प्रकीर्णक इस प्रकीर्णक में कुल 27 गाथायें हैं। इसकी प्रथम गाथा में कुशलता हेतु चतुःशरण गमन, दुष्कृत गर्दा और सुकृत का अनुमोदन-इन तीन अधिकारों का निर्देश है / प्रथम अधिकार में अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण में जाने और शरणागत होकर
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy