SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 211 की अपेक्षा प्राचीनकाल की है और आचारांग एवं सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तथा सुत्तनिपात के अधिक निकट है / दूसरे जहाँ ऋषिभाषित में इन विचारों को अन्य परम्पराओं के ऋषियों के सामान्य सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया गया है, वहाँ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य और जैन साहित्य में इन्हें अपनी परम्परा से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है / उदाहरण के रूप में आध्यात्मिक कृषि की चर्चा ऋषिभाषित२३ में दो बार और सुत्तनिपात२४ में एक बार हुई है, किन्तु जहाँ सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं कि मैं इसप्रकार की आध्यात्मिक कृषि करता हूँ, वहाँ ऋषिभाषित का ऋषि कहता है कि जो भी इसप्रकार की कृषि करेगा वह चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र हो, मुक्त होगा / अत : ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर जैन और बौद्ध परम्परा के अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा प्राचीन ही सिद्ध होता है। भाषा की दृष्टि से विचार करने पर हम यह भी पाते हैं कि ऋषिभाषित में अर्धमागधी प्राकृत का प्राचीनतम रूप बहुत कुछ सुरक्षित है / उदाहरण के रूप में ऋषिभाषित में आत्मा के लिए 'आता' शब्द का प्रयोग हुआ है, जबकि जैन अंग आगम साहित्य में भी अत्ता, अप्पा, आदा, आया, आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है जो कि परवर्ती प्रयोग है / 'त' श्रुति की बहुलता निश्चित रूप से इस ग्रन्थको उत्तराध्ययन की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध करती है, क्योंकि उत्तराध्ययन की भाषा में 'त' के लोप की प्रवृति देखी जाती है / ऋषिभाषित में जाणति, परितप्पति, गच्छति, विज्जति, वट्टति, पवत्तति आदि रूपों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भाषा और विषयवस्तु दोनों ही दृष्टि से यह एक पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। : अगन्धक कुल के सर्प का रूपक हमें उत्तराध्ययन२५, दशवैकालिक२६ और ऋषिभाषित२७ तीनों में मिलता है / किन्तु तीनों स्थानों के उल्लेखों को देखने पर यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि ऋषिभाषित का यह उल्लेख उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन है क्योंकि ऋषिभाषित में मुनि को अपने पथ से विचलित न होने के लिए इसका मात्र एक रूपक के रूप में प्रयोग हुआ है, जबकि दशवैकालिक और उत्तराध्ययन में यह रूपक राजीमती और रथनेमि की कथा के साथ जोड़ा गया है / . . ' अत : ऋषिभाषित सुत्तनिपात, उत्तराध्ययन और दशवकालिक की अपेक्षा प्राचीन है / इसप्रकार ऋषिभाषित आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध का परवर्ती और शेष सभी अर्धमागधी आगम साहित्य का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है / इसीप्रकार पालि त्रिपिटक के प्राचीनतम ग्रन्थसुत्तनिपात की अपेक्षा भी प्राचीन होने से यह ग्रन्थसम्पूर्ण पालि त्रिपिटक से भी पूर्ववर्ती है। - जहाँ तक इसमें वर्णित ऐतिहासिक ऋषियों के उल्लेखों के आधार पर काल-निर्णय करने का प्रश्न है वहाँ केवल वज्जीयपुत्त को छोड़कर शेष सभी ऋषि महावीर और बुद्ध से या तो पूर्ववर्ती हैं या उनके समकालिक हैं / पालि-त्रिपिटक के आधार पर वज्जीयपुत्त (वात्सीयपुत्र) भी बुद्ध के लघुवयस्क समकालीन ही हैं-वे आनन्द के निकट थे /
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy