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________________ गच्छाचार (प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन : 177 गच्छ को मूलगुणों से भ्रष्ट जानों / गाथा 89-90 में उस गच्छ को मर्यादाहीन कहा गया है, जिसके साधु-साध्वी, सोना-चाँदी, धन-धान्य, काँसा-ताम्बा आदि का परिभोग करते हों तथा श्वेतावस्त्रों को त्यागकर रंगीन वस्त्र धारण करते हों / गाथा 91 में तो यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु, साध्वियों द्वारा लाये गये संयमोपकरण का भी उपभोग करते हैं, वह गच्छ मर्यादाहीन है / इसीप्रकार गाथा 93-94 में अकेले साधु का अकेली साध्वी या अकेली स्त्री के साथ बैठना अथवा पढ़ना-पढ़ाना मर्यादा विपरीत माना गया है। ग्रन्थ में शिथिलाचार का विरोध करते हुए यहाँ तक कहा गया है कि जिस गच्छ के साधु क्रय-विक्रय आदि क्रियाएँ करते हों एवं संयम से भ्रष्ट हो चुके हों, उस गच्छ का दूर से ही परित्याग कर देना चाहिए / गाथा 118-122 में स्वच्छंदाचारी साध्वियों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि दैवसिक, रात्रिक आदि आलोचना नहीं करने वाली, साध्वी प्रमुखा की आज्ञा में नहीं रहने वाली, बीमार साध्वियों की सेवा नहीं करने वाली, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि नहीं करने वाली साध्वियों का गच्छ निन्दनीय है / गच्छाचार-प्रकीर्णक में उल्लिखित शिथिलाचार के विवेचन से यह फलित होता है कि गच्छाचार उस काल की रचना है जब मुनि-आचार में शिथिलता का प्रवेश हो चुका था और उसका खुलकर विरोध किया जाने लगा / जैन आचार के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि विक्रम की लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी से मुनियों के आचार में शिथिलता आनी प्रारम्भ हो चुकी थी / जैनधर्म में एक ओर जहाँ तन्त्र-मन्त्र और वाममार्ग के प्रभाव के कारण शिथिलाचारिता का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर उसी काल में वनवासी परम्परा के स्थान पर जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में चैत्यवासी परम्परा का विकास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप पाँचवीं-छठीं शताब्दी में जैन मुनिसंघ पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी बन गया और उस पर हिन्दू परम्परा के मठवासी महन्तों की जीवन शैली का प्रभाव आ गया / शिथिलाचारी प्रवृत्ति का विरोध दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में तथा श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में देखा जा सकता है / यद्यपि यह कहना तो कठिन है कि आचार्य कुन्दकुन्द और हरिभद्रसूरि की आलोचनाओं से जैन मुनिसंघ में यथार्थ रूप से कोई सुधार आ गया था क्योंकि यदि ऐसा कोई सुधार आया होता तो भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा समाप्त हो जानी चाहिए थी, किन्तु अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ८वीं९वीं शताब्दी में भट्टारक और चैत्यवासी परम्परा न केवल जीवित थी, अपितु फलफूल रही थी / जिसके परिणाम स्वरूप निर्गन्ध परम्परा में स्वच्छन्दाचारी एवं शिथिलाचारी प्रवृति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी / जैसा कि हम पूर्व में ही यह प्रतिपादित कर चुके हैं कि लगभग उसी काल में गच्छाचार की रचना हुई होगी / वस्तुतः गच्छाचार ऐसा ग्रन्थ है जो जैन मुनि संघ को आगमोक्त आचार-विधि के परिपालन हेतु निर्देश ही नहीं देता है वरन उसे स्वच्छन्दाचारी और शिथिलाचारी प्रवृत्तियों से दूर रहने का आदेश भी देता है।
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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