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________________ 98 : डॉ० धर्मचन्द जैन है एवं प्रकीर्णकों की विषयवस्तु को ही उनमें स्पष्टतर रूप में प्रतिपादित किया गया है। . हम प्रकीर्णकों को आधार बनाकर समाधिमरण के निम्नांकित प्रमुख सोपान निर्धारित कर सकते हैं 1. संलेखना, 2. आत्म-आलोचन, 3. व्रताधान, 4. संस्तारक, 5. क्षमायाचना, 6 आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग, 7. भावनाओं द्वारा दृढीकरण, 8. पंच परमेष्ठि की शरण, 9. देह विसर्जनास्थूल रूप में तो संलेखना, संथारा और मरण ये तीन सोपान ही बनते हैं, किन्तु समाधिमरण का स्वरूप कुछ स्पष्ट हो सके, इसलिए सात सोपानों में इनका विवेचन किया जा रहा है। 1. संलेखना संलेखना का अर्थ है कृश करना / संलेखना दो प्रकार की होती है- 1. बाह्य और 2. आभ्यन्तर / शरीर की संलेखना बाह्य संलेखना कहलाती है तथा कषायों की संलेखना आभ्यन्तर संलेखना होती है।४२ विविध प्रकार के आयम्बिल, उपवास आदि तप करके शरीर को कृश करना शरीर संलेखना है / अल्प, विरस, एवं रूखा आहार ही उस साधक के लिए ग्राह्य है / बेले, तेले, चोले आदि की तपस्याएं एवं प्रतिमा आराधना भी वह कर सकता है / शरीर की इस संलेखना के साथ कषाय की संलेखना आवश्यक है / यदि शरीर कृश होता जाय और अध्यवसायों में विशुद्धि न हो तो शरीर की संलेखना भी निरर्थक हो जाती है।४३ कषायों में कमी करने का साधक निरन्तर प्रयास करें / वह क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से एवं लोभ को संतोष से जीते / / 4 वह राग एवं द्वेष दोनों से बचे तथा निस्संग होकर विचरण करे / शरीर संलेखना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदों की अपेक्षा तीन प्रकार की है। जघन्यसंलेखना 12 पक्ष अर्थात् छ: माह, मध्यमसंलेखना 12 माह तथा उत्कृष्ट संलेखना 12 वर्षों तक चलती है / 45 इसका अर्थ है कि समाधिमरण से मरने वाला साधक अपनी तैयारी पर्याप्त समय रहते प्रारम्भ कर देता है / संलेखना साधना का लक्ष्य वस्तुतः कषायों में कमी लाना है / शरीर की संलेखना भी उसी की पूर्ति के लिए की जाती है / जो साधक तपस्या आदि के माध्यम से शरीर को कृश तो कर लेता है किन्तु कषायों को कृश नहीं करता, उसकी साधना निष्फल रहती है। 2. आत्म-आलोचन समाधिमरण का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण सोपान है / इसके द्वारा अपने भीतर विद्यमान दोषों का अवलोकन कर उन्हें छोड़ा जाता है / संलेखना करते हुए भी जो दोष साधक के भीतर शेष रह जाते हैं उनका त्याग आत्म-आलोचन के द्वारा ही संभव है / अपनी आलोचना स्वयं भी की जा सकती है तथा गुरु के पास जाकर भी की जा सकती है / गुरुजनों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करने पर हलकेपन का अनुभव होता है / गुरुजन भी दोषों को छोड़ने की प्रेरणा देकर आत्मा का महत्त्व बतलाते हैं / उस आलोचना के द्वारा प्रमुख रूप से साधक
SR No.004282
Book TitlePrakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1995
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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