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________________ आनन्द आदि श्रावकों का प्रबन्ध-कौशल - उपासकदशांग के अनुसार गाथापति आनन्द सेवा और साधना के लिए पर्याप्त समय और संसाधनों का नियोजन करता था। उपासकदशांग और अन्य आगमों के अन्य श्रावक भी वैसा करते थे। क्योंकि अर्थव्यवस्था ही नही, पूरी जीवन की व्यवस्था प्रबन्ध से सुचारु रूप से संचालित हो पाती थी। उन श्रावकों का लम्बा-चौड़ा कृषि, पशुपालन, लेन-देन, व्यापार, उद्योग आदि का काम-काज भी चलता था। बिना प्रबन्धकीय कौशल के अर्जन और विसर्जन का यह संयोग सम्भव नहीं था। हजारों कर्मचारी आनन्द आदि की व्यावसायिक गतिविधियों से जुड़े थे। सब अपने-अपने कार्यो में दक्ष थे। सकडालपुत्र के भाण्ड उद्योग में भी वैसा ही अच्छा प्रबन्ध रहा होगा। आज की तरह उस समय प्रबन्ध की विधा सुविकसित हुई हो या नहीं, परन्तु प्रबन्ध के गुर और गुण उस समय का व्यक्ति समझता था और तदनुरूप आचरण भी करता था। जिसे हम उद्यमिता (इण्टरप्रेनरशिप) कहते हैं, वह उस समय ज्यादा देखने को मिलती है। आचारांग के अनुसार व्यवसायी लाभ के लिए कठिन से कठिन काम में तत्पर हो जाते थे। उस समय मशीन, तकनीक, आधारभूत सुविधाएँ (इन्फ्रास्ट्रकर) आदि आज की भाँति नहीं होने के बावजूद बड़े-बड़े व्यावसायिक औद्योगिक उपक्रम, व्यापारिक गतिविधियाँ आयातनिर्यात आदि बिना उचित व उच्च प्रबन्ध के सम्भव नहीं थे। व्यापारी विपणन में कुशल थे। वे बाजार की तलाश करते और उसे विकसित करत थे व्यापारियों की कथाओं में साहस और प्रबन्धकीय कौशल के रोमांचक उदाहरण मिलते हैं। कार्यों में समन्वय __ जैसा कि बताया गया है कि प्रबन्ध के बिना अर्थव्यवस्था का संचालन संभव नहीं है। भूमि, श्रम, पूंजी और सारे संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग और सभी में पूर्ण ‘सामंजस्य प्रबन्ध का कार्य है। प्रबन्ध की इसी महत्ता के कारण उसे धनोपार्जन का एक स्तम्भ माना गया है। वर्तमान की तरह निजी और लोक, सीमित और असीमित दायित्व वाली कम्पनियाँ उस समय रही होगी, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है, परन्तु यह उल्लेख मिलता है कि व्यक्ति संयुक्त रूप से व्यापार करने का अनुबन्ध करते, उसमें पूंजी निर्माण के लिए सभी अपना-अपना अंशदान करते तथा उसी रूप में लाभ वितरण किया जाता' व्यवसाय का यह तरीका भागीदारी से बिल्कुल भिन्न है। इसकी तुलना वर्तमान के संयुक्त साहस निगम से की जा सकती है। (61)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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