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________________ है, तो उसे क्या लाभ होता है ? भगवान फरमाते हैं - वह एकान्त कर्म निर्जरा (धर्म प्राप्ति) करता है, किन्तु किंचित भी पाप-कर्म नहीं करता है। स्वामी कार्तिकेय कहते हैं कि 'जो लक्ष्मी पानी में उठने वाली तरंगों के समान चंचल है, दो-तीन दिन ठहरने वाली है, उसका सदुपयोग यही है कि दयालु होकर योग्य पात्र को दान दिया जाय। ऐसा नहीं करके जो व्यक्ति केवल लक्ष्मी का संचय करता रहता है, उसे जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट पात्रों में दान नहीं करता है; वह अपनी आत्म-वंचना करता है। उसका मनुष्य जन्म पाना वृथा है। सुपात्रदान की महिमा का बखान करते हुए आचार्य राजेन्द्र सुरीश्वर कहते हैं - मुनिवरों के दर्शन मात्र से दिन में किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है, तो फिर जो उन्हें दान देता है, उसे जगत में ऐसी कौनसी वस्तु है जो प्राप्त न हो। यहाँ तक सम्यक्त्व की उपलब्धि भी दान से प्राप्त होती है। धन, साधनों और संसाधनों के उपयोग में सुपात्रदान को उत्कृष्ट दान और उत्कृष्ट दान को सुपात्र दान बताया गया है। सुपात्रदान को उत्तम दान बताने के पीछे मुख्य कारण यह है कि सुपात्रदान अहिंसा, संयम ओर तप की आराधना में प्रबल निमित्त है। धन का उपयोग इस प्रकार होना चाहिये जिससे अहिंसा का विस्तार हो और समतामूलक समाज रचना में वह निमित्त बन सके। किसी भी प्रकार से धन के उपयोग में यह विवेक दृष्टि हो कि अहिंसा की परम्परा आगे-से-आगे बढ़ती रहे। इसीलिए तीर्थंकरों ने अनुकम्पा दान का मुक्त समर्थन किया है। ठाणांग20 में दस प्रकार के दानों में अनुकम्पा को प्रथम बताया गया है। अनुकम्पा मन की उस उच्चतर अवस्था का नाम है, जहाँ व्यक्ति दूसरों के दुख से अनुकम्पित हो जाए। किसी के दुख से द्रवित/अनुकम्पित होकर उसकी मदद करना मानवोचित कर्तव्य है। अनुकम्पा दान का लक्षण बताते हुए आचार्य उमास्वाति कहते हैं - अनुकम्पा दान वह है जो दयनीय, अनाथ, दरिद्र, संकटग्रस्त, रोगग्रस्त एवं शोकपीड़ित व्यक्ति को अनुकम्पा लाकर दिया जाता है। अनुकम्पा को व्यवहार सम्यक्त्व का एक लक्षण बताया गया है। तेबीसवें तीर्थंकर भ. पार्श्वनाथ के शिष्य केशी श्रमण राजा प्रदेशी का हृदय परिवर्तित कर देते हैं। राजा प्रदेशी व्रत ग्रहण करता है। एक व्रत के अन्तर्गत प्रदेशी ने राज्य सम्पदा के चार भाग किये। उनमें से एक भाग राज्य के दीन, दुखी, अनाथ और जरूरतमन्द व्यक्तियों के कल्याण के लिए रखने का संकल्प किया। इस प्रकार परमार्थ और परोपकार में धन के उपयोग की महिमा से ग्रन्थ भरे पड़े हैं। विधि और विवेक से दिये गये दान अथवा किये गये सहयोग के अनेक आर्थिक आयाम हैं। (47)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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